शुक्रवार, 26 जून 2020

हमारे देश में नई दवा की लाईसेंस प्रक्रिया

हमारे देश में नई दवा की लाईसेंस प्रक्रिया



दवा को बाजार में उतारने से पहले उत्पादक को कई चरणों से होकर गुजरना होता है
प0नि0डेस्क
देहरादून। सामान्य हालातों में किसी दवा को विकसित करने और उसका क्लिनिकल ट्रायल पूरा होने में न्यूनतम तीन साल तक का समय लगता है लेकिन अगर विशेष हालात में किसी दवा को बाजार में आने में कम से कम दस महीने से सालभर तक का समय लग जाता है।
भारत में किसी दवा या ड्रग को बाजार में उतारने से पहले किसी व्यक्ति, संस्था या स्पान्सर को कई चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। इसे ड्रग अप्रूवल प्रोसेस कहते हैं। अप्रूवल प्रोसेस के तहत क्लिनिकल ट्रायल के लिए आवेदन करना, क्लिनिकल ट्रायल कराना, मार्केटिंग आथराइजेशन के लिए आवेदन करना और पोस्ट मार्केटिंग स्ट्रेटजी जैसे कई चरण होते है।
हालांकि हर देश में अप्रूवल का एक ही तरीका हो यह जरूरी नहीं और विभिन्न देशों में अपने कुछ विशेष प्रावधान और नियम होते हैं। भारत का औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 और नियम 1945 औषधियों तथा प्रसाधनों के निर्माण, बिक्री और वितरण को विनियमित करता है।
औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम 1945 के अंतर्गत ही भारत सरकार का केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) दवाओं के अनुमोदन, परीक्षणों का संचालन, दवाओं के मानक तैयार करने, देश में आयातित होने वाली दवाओं की गुणवत्ता पर नियंत्रण और राज्य दवा नियंत्रण संगठनों को विशेष सलाह देते हुए औषधि और प्रसाधन सामग्री के लिए उत्तरदायी है।
 भारत में किसी ड्रग के लिए अप्रूवल मिलना एक चरणबद्व प्रक्रिया है। हमारे देश में किसी दवा के अप्रूवल के लिए सबसे पहले इंवेस्टिगेशनल न्यू ड्रग एप्लिकेश (आईएनडी) को सीडीएससीओ के मुख्यालय में जमा करना होता है। इसके बाद न्यू ड्रग डिवीजन इसका परीक्षण करता है। इस परीक्षण के बाद आईएनडी कमेटी इसका अध्ययन और समीक्षा करती है।
समीक्षा के बाद इस नई दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया के पास भेजा जाता है। अगर ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया आईएनडी के इस आवेदन को सहमति दे देते हैं तो इसके बाद कहीं जाकर क्लिनिकल ट्रायल की बारी आती है। क्लिनिकल ट्रायल के चरण पूरे होने के बाद सीडीएससीओ के पास दोबारा एक आवेदन करना होता है। यह आवेदन न्यू ड्रग रजिस्ट्रेशन के लिए होता है।
एक बार फिर ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया इसे रीव्यू करता है। अगर यह नई दवा सभी मानकों पर खरी उतरती है तो ही इसके लिए लाइसेंस जारी किया जाता है। लेकिन अगर यह सभी मानकों पर खरी नहीं उतरती है तो डीसीजीआई इसे रद्द कर देता है। भारत में किसी नई दवा के लिए अगर लाइसेंस हासिल करना है तो कई मानकों का ध्यान रखना होता है। यह सभी मानक औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम 1945 के तहत आते हैं।
इसके लिए समझना जरूरी है कि नई दवा दो तरह की हो सकती है। एक तो वो जिसके बारे में पहले कभी पता ही नहीं था। इसे एनसीई कहते हैं। ये एक ऐसी दवा होती है जिसमें कोई नया केमिकल कंपाउंड हो। दूसरी नई दवा उसे कहा जाता है जिसमें कंपाउंड तो पहले से ज्ञात हों लेकिन उनका फार्मूलेशन अलग हो। उदाहरण के तौर पर मसलन जो दवा अभी तक टैबलेट के तौर पर दी जाती रही उसे अब स्प्रे के रूप में दिया जाने लगा हो। ये नई दवा के दो रूप हैं लेकिन इनके लाइसेंसिंग अप्रूवल के  लिए नियम एक ही होंगे। इन नियमों का कहीं भी उल्लंघन होने पर कार्रवाई की जा सकती है।
अंग्रेजी दवा और आयुर्वेंद के लिए अप्रूवल मिलने में अंतर बहुत अधिक नहीं है लेकिन आयुर्वेद में अगर किसी प्रतिष्ठित किताब के अनुरूप कोई दवा तैयार की गई है तो उसे आयुष मंत्रालय तुरंत अप्रूवल दे देगा। जबकि एलोपैथ में ऐसा नहीं है। एलोपैथ यानी अंग्रेजी दवा की तुलना में आयुर्वेद के लिए लाइसेंस पाने की प्रक्रिया में थोड़ा अंतर होता है।
आयुर्वेद प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्वति है जिसमें किसी जड़ी-बूटी को किस मात्रा में किस रूप में और किस इस्तेमाल के लिए अपनाया जा रहा है सबका लिखित जिक्र है। ऐसे में अगर कोई ठीक उसी रूप में अनुपालन करते हुए कोई औषधि तैयार कर रहा है तब तो ठीक है। लेकिन अगर कोई काढ़े की जगह टैबलेट बना रहा है और मात्राओं के साथ हेर-फेर कर रहा है तो उसे सबसे पहले इसके लिए रेफरेंस देना होता है।
आयुर्वेद भी अधिनियम 1940 और नियम 1945 के ही मानकों पर काम करता है लेकिन कुछ मामलों में ये एलोपैथ से अलग है। मसलन अगर आप किसी प्राचीन और मान्य आयुर्वेद संहिता को आधार बनाकर कोई दवा तैयार कर रहे हैं तो आपको क्लिनिकल ट्रायल में जाने की जरूरत नहीं है लेकिन अगर आप उसमें कुछ बदलाव कर रहे हैं या उसकी अवस्था को बदल रहे हैं और बाजार में उतारना चाहते हैं तो कुछ शर्तों को पूरा करने के बाद ही आप उसे बाजार में ला सकेंगे। 
इसके साथ ही देश के हर राज्य में स्टेट ड्रग कंट्रोलर होते हैं। जो अपने राज्य में दवा के मैन्युपफैक्चर के लिए लाइसेंस जारी करते हैं। जिस राज्य में दवा का निर्माण होना है, वहां स्टेट ड्रग कंट्रोलर से अप्रूवल लेना होता है। ऐसा नहीं है कि नियम और शर्ते सिर्फ़ नई दवाओं को बाजार में लाने के लिए है। अगर कोई नई दवा नहीं बल्कि कोई शेड्यूल ड्रग भी बाजार में लाया जा रहा है तो उसे बाजार में लाने से पहले उसकी कीमत तय की जाएगी। जिसके लिए नेशनल फार्मास्युटिकल प्रइसिंग अथारिटी से अप्रूवल लेना होगा।
शेड्यूल ड्रग्स का मतलब ऐसी दवाओं से है जो पहले से ही नेशनल लिस्ट आपफ इसेंसियल लिस्ट में शामिल हों। इन मानक नियमों की अनदेखी होने पर लाइसेंस रद्द भी हो सकता है।


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