हुड़किया बौल पहाड़ की संस्कृति नहीं, बेगार प्रथा का अवशेष है
पुरूषोत्तम शर्मा
लालकुआं। आजकल कई लोग पहाड़ में पहले होने वाले हुड़किया बौलों की नकल करते उसे पहाड़ की संस्कृत के रूप में प्रचारित करते रहते हैं। हुड़किया बौल (श्रमिकों से हुड़के की थाप पर खेतों में बिना मजदूरी काम कराना) को पहाड़ की संस्कृति के रूप में प्रचारित नहीं करना चाहिए। कारण यह वहां के आमजन का कोई सामूहिक उत्पादन के साथ जुड़ा सांस्कृतिक कर्म नहीं था, जैसा अब प्रचारित किया जाता है।
यह पहाड़ के जमींदारों, मालगुजारों, थोबदारों या बड़ी जमीनों के मालिक लोगों द्वारा अपने खेतों में ग्रामीण गरीबों से कराई जाने वाली बेगार प्रथा (बिना मजदूरी भुगतान का श्रम) का हिस्सा था। चूंकि इनके पास एक ही जगह में जमीन की बड़ी मात्रा होती थी, इसलिए अपने प्रभाव व अपनी ताकत के प्रदर्शन के रूप में उनके द्वारा यह हुड़किया बौल आयोजित किया जाता था।
आपने भी बचपन में ऐसे आयोजन देखे होंगे। कहीं भी सामूहिक खेती या गरीब व छोटे किसानों के खेतों में इसका आयोजन नहीं होता था। इसलिए इसे पहाड़ की संस्कृति के रूप में प्रचारित नहीं करना चाहिए। यह मनोरंजन के साथ श्रमिकों के शोषण का एक सामंती प्रभुत्व जताने वाला आयोजन है।