रविवार, 2 अगस्त 2020

उम्मीदें

जैसलमेर के रेतीले समंदर के बीच अपने अनुभवों को उकेरने का अवसर मिला। हालांकि इसके दो आयाम है। एक आम आदमी के लिहाज से और दूसरा एक सैनिक के तौर पर गुजरे दिनों की सीख और अब याद। 


उम्मीदें


- चेतन सिंह खड़का



रेत सी जमती-बिखरती
रेत के टीले सी बनती बिगड़ती
उम्मीदें।


कभी तेज हवा के माफिक
झाड़ियों में लहराती
अचानक बिच्छू सा डंस जाती
उम्मीदें।


रेत सी तपती, झुलसती झाड़ियों सी
कीड़ों सा रेंगती
पंक्षियों सी फड़फड़ाती
उम्मीदें।


पशुओं सी खाये-प्यास बुझाये
चारा ढुंढ़ने जाये
कुछ मिले न मिले
प्यास बढ़ती जाये
थककर कहीं गिर पड़े
प्यासी ही मर जाये
उम्मीदें।


धूप में झुलसे-जले सी
प्यास से सुखे गले सी
सुखे हुए दरख्त के नीचे
टेंटों के अंदर गर्मी से
पसीना-पसीना
उम्मीदें।


दूर तक रेतीले टीले
कुछ झाड़ियां सुखे-हरी सी
ऐसी जमीं पे बिखरी हुई
चिंटियों और टिड्ड़ियों सी
उम्मीदें।
 
प्यास से दम तोड़ती
भूख से मौत खोजती
रास्तों में ही लाश होती
लू का कफन ओढ़े
कंकाल सी होती
उम्मीदें।


बादल आते-गरजते जाते
तकने वाले, तरसते जाते
गर्म हवा में पसीने की ठंड़क
ऐसे ही खुद को भरमाती
उम्मीदें।


हवा न चली तो उमस छा गयी
गर्मी ऐसी कि मौत आ गयी
हवा जो चले तो तूफान आया
लोगों ने अपना घर भी गंवाया
ऐसी ही लुटी-पिटी सी
उम्मीदें।


एक ढ़लती हुई शाम सी 
राहत भरी-काम की
जैसे सावन के झूले पड़े हो
छांव में गधे खड़े हों
उंट सी खड़ी-बड़ी
उम्मीदें।


ताश की तरह पिसती हुई
तुरूप की तरह चलती हुई
जोकर की तरह लगती हुई
बेरंग पत्तों सी पिटती हुई
अधुरी बाजियों सी
उम्मीदें।


खाली राइफल के जैसी
सिलिंग में लटकी सी
आदमी के कंधे झुकाती
डंड़ों सी हो रही
उम्मीदें।


रात को आसमां में ताकती
टिमटिमाते तारों को गिनती
अंधेरों में भटकती
दिशा का अनुमान लगाते हुए
नार्थ सी गुम होती
उम्मीदें।


एक लंबी थकान सी
संतरी के नींद जैसी
घड़ी को देखते हुए 
कटते हुए समय सी
उम्मीदें।


वो सुस्ती, उबासियां
उसपे पहरा सा देती हुई
थक कर बैठी हुई
बंद आंखों सी रहती
ड्यिूटी सी होती
उम्मीदें।


हवा में रेत उठाती हुई
शरीर में एक परत बनाती हुई
दांतों में बजती हुई
पेट में उतरती 
रेत सी होती
उम्मीदें।


पन्नों में लिखी इबारत सी
कुछ बताती हुई
रंगीन पोस्टरों जैसी
पन्नों में बंद होकर
किताब सी होती
उम्मीदें।


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