मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

अति का भला न बोलना अति की भली न चुप

किसान आंदोलन में किसानों के रवैये और सरकार की भूमिका पर उठते सवाल



अति का भला न बोलना अति की भली न चुप

प0नि0ब्यूरो

देहरादून। देश की राजधानी के इर्द गिर्द सिमटा किसानों का आंदोलन लंबा खींच गया है। इस आंदोलन से एक बात तो साफ है कि किसानों की समस्याओं के समाधान की किसी को कोई चिंता नहीं है। बल्कि एक तरह से इस गंभीर विषय पर राजनीति हो रही है। 

सरकार बातचीत का राग अलाप रही है और किसान जिद् पर अड़े हुए है। दोनों पक्ष अपने अपने हितों के लिए डटे हुए है। उन्होंने जैसे समस्या से न निपटने की कसम खा ली है। किसान चाहते है कि काननू वापस हो और सरकार उक्त कानूनों में संशोध्न करने को तैयार है। हालांकि सरकार और किसानों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन नतीजा सिफर ही रहा है।

अब तो इस आंदोलन में भारी घुसपैठ भी हो चुकी है। हर कोई रोटी सेंकने वाले पगड़ी बांधकर खुद को किसान और किसानों का हितैषी साबित करने की होड़ लगा रहा है। वास्तव में देखें तो किसानों की हठधर्मिता के पीछे राजनीति ही दिखाई देती है। हालांकि किसान बातचीत के सरकारी प्रस्ताव को नकार नहीं रहे लेकिन उनकी जिद् राजनीतिक ही लग रही है। अब तो उन्होंने कई लगहों पर अराजकता फैला दी है।

ऐसे में आंदोलन के नाम पर किसानों के रवैये पर सवाल उठना लाजमी है। और सवाल यह भी कि क्या पंजाब, हरियाणा और यूपी के अलावा अन्य प्रदेशों में किसान नहीें है? तो फिर महज इन्हीं कुछ राज्यों के किसान क्यों जरूरत से ज्यादा उद्वेलित है? आंदोलन के नाम पर उन्हें क्या हक है कि वे देश की राजधनी को बंधक बना लें। आम नागरिकों का रास्ता ब्लाक करें और टोल प्लाजा को अपने कब्जे में ले लें। 

वहीं किसान नेता जिस तरह से विभिन्न समाचार चैनलों में आकर अर्नगल गरिया रहें है, वह सर्वथा अनुचित है। आखिर ये साबित क्या करना चाहते है? वैसे ज्यादातर कथित किसान नेता, किसी न किसी राजनीतिक दलों से जुड़े हुए है। यहीं कारण है कि बातचीत के टेबल में बैठने के बाद भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की वजह से कोई नतीजा नहीं निकल पा रहा है। 

इसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। चीजें आंदोलन की वजह से मंहगी हो रही है। आवागमन में रूकावट आने की वजह से जरूरतों की चीजों की शार्टेज हो गयी है। इसका अवसरवादी लाभ उठाने से बाज नहीं आ रहें है। वहीं सरकार की इस पूरे आंदोलन के बीच भूमिका सवालों के घेरे में है। जैसा कि सरकार का मानना है कि किसानों के लिए बनाये गए कानून उनके हित में है तो वह क्यों उन्हें समझाने में नाकाम रहीं। 

किसान आंदोलन में कौन सही है या कौन गलत, इसका कोई अर्थ नहीं रह गया बल्कि किसानों और सरकारों पर पूरे देश की सवालिया निगाहें है। संभवतया न तो सरकार और न किसान उसका जवाब देने के हाल में है। क्योंकि जनता की हालात तो ऐसी हो गई है कि देशी भाषा में कहा भी जाता है कि झोट्टों की लड़ाई में झुण्ड़ों का नाश। किसान और सरकार जिद् और पूर्वाग्रहों का त्याग कर बातचीत करें, इसी में सबकी भलाई है। इसी से समाधन भी निकलेगा।


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