नेपाल में राजनीतिक घमासानः ओली बनाम प्रचंड
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। नेपाल सर्वाेच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का पिछले साल दिसंबर में अचानक संसद को भंग करना असंवैधानिक करार दिया था। उसने 8 मार्च से पहले संसद का अधिवेशन बुलाने का आदेश दिया। इससे नेपाल की राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई। ओली ने ऐलान किया है कि वह इस्तीफा नहीं देंगे, संसद में सामना करेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल प्रचंड की अगुआई वाले एनसीपी के एक अन्य धड़े ने भी नेपाली कांग्रेस जैसे अन्य गठबंधन साझेदारों और संसद के अन्य दलों से विमर्श शुरू कर दिया है क्योंकि यह साफ हो चुका है कि नेपाल में आम चुनाव नहीं होगा। नया प्रधानमंत्री संसद में ताकतों/दलों के से गठजोड़ से ही निकलेगा।
मौजूदा हालात सत्तारूढ़ दल में मतभेद, महत्वाकांक्षी राजनीति और राजनीतिक नेतृत्व संषर्घ का परिणाम है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एनसीपी में विभाजन तय था क्योंकि यह मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के बीच का अजीब सा गठबंधन था। दोनों बड़े नेताओं के बीच प्रतिद्वंद्विता थी। प्रचंड ने गृह युद्व में माओवादियों की अगुआई की और नेपाल में बदलाव की जमीन तैयार की थी। वहीं केपी ओली यूनाइटेड मार्क्ससिस्ट लेनिनिस्ट ने भारत विरोधी भावनाओं को हवा देकर चुनाव जीतने के लिए नेपाली राष्ट्रवाद की लहर चलायी।
ओली और प्रचंड के बीच समझौता दोनों दलों के विलय और जीते गए वोटों के आधार पर सत्ता साझेदारी का आधार था, लेकिन इसे निभाना मुश्किल होता गया। इसके बाहरी सूत्रधारों में नेपाली नेता बीडी भंडारी और नेपाल में चीन की राजदूत होउ यांकी शामिल रहे। चीन के लिए एनसीपी में एकजुटता जरूरी था, ताकि उसे नेपाल में भारत पर अपनी बढ़त बरकरार रखने में मदद मिलती रहे।
दिसंबर में जब प्रतिनिधि सभा को भंग किया गया था तो हालात प्रचंड के पक्ष में थें। उनके पास न केवल पार्टी का नाम और सूर्य प्रतीक को बनाए रखने का मौका था बल्कि उन्हें 441 केंद्रीय समिति के सदस्यों में से 300 और 176 नीति-निर्माताओं में से 100 का समर्थन प्राप्त था। लेकिन ओली का धड़ा बड़ी चतुरता से इससे निपट गया। तकनीकी रूप से पार्टी में कोई विभाजन नहीं है। हालांकि ओली को एनसीपी के सह-प्रमुख और संसदीय दल के नेता के पद से इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा। अब वह सामान्य सदस्य हैं। लेकिन वह अपनी करिश्माई क्षमता से प्रधानमंत्री बने हुए हैं।
नेपाल में किंगमेकर नेपाली कांग्रेस पार्टी है, जो 63 सीटों के साथ निचले सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई जनता समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं, जो तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। यह विभिन्न असंतुष्ट समूहों एवं लोगों का गठजोड़ है, जो एक उदार वैचारिक समूह में शामिल हुए हैं। अगर प्रचंड और भट्टाराई हाथ मिला लेते हैं तो ओली के लिए मुकाबला करना मुश्किल होगा। लेकिन ओली के पास भी मददगार हैं। इनमें से एक शेर बहादुर देऊबा की नेपाली कांग्रेस है। हालांकि नेपाली राजनीति में निष्ठा तेजी से बदल रही हैं, इसलिए आंकड़ों का आकलन करना जरा मुश्किल है।
भारत की लोकतांत्रिक नेपाल में स्थिर सरकार की नीति है। लेकिन ईमानदारी से कहा जाये तो नेपाल में स्थिर सरकार भारत के लिए बेहतर नहीं होती। इसका उदाहरण ओली सरकार है। तब भारत को दो-तिहाई बहुमत और चीन के समर्थन वाले प्रधानमंत्री के 5 साल सत्ता में बने रहने के आसार नजर आ रहे थे। लेकिन यह क्रम टूट गया है। नेपाल में एक विभाजित वामपंथी सरकार आने के आसार हैं, जिसे मुख्य रूप से नेपाली कांग्रेस और जनता समाजवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त होगा। सत्ता की धुरी भारत के पक्ष में आ रही है, इसलिए भारत सतर्कता के साथ आशावादी है।
कुछ चीजें नेपाल में बिलकुल साफ है तो कुछ रहस्य और अनिश्चय में है। तस्वीर अब भी धुंधली है। इस बात का पता तो 8 मार्च के बाद पता चलेगा कि नेपाल का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। फिलहाल आपसी प्रतिद्वंदिता की वजह से ओली वर्सेज प्रचंड की जंग में जीत किसके हाथ लगेगी, कुछ भी कह पाना आसान नहीं है।
अब लिंक का इंतजार कैसा? आप सीधे parvatiyanishant.page पर क्लिक कर खबरों एवं लेखों का आनंद ले सकते है।