बुधवार, 17 नवंबर 2021

बचत बगैर गुजर नहीं, किंतु कितनी? और खर्च करें तो कहां और कितना?

 बचत बगैर गुजर नहीं, किंतु कितनी? और खर्च करें तो कहां और कितना?



हरीश बड़थ्वाल

नई दिल्ली। खर्च और बचत में तालमेल नहीं बैठाए रखेंगे तो घरेलू बजट अस्त-व्यस्त हो जाएगा जो जिंदगी की पटरी को डगमगा सकता है।

बाजार जाते वक्त आपके पास कितने रुपए हैं और कहां रखे हैं, आप भूल भी जाएं किंतु प्रायः दुकानदार और पाकेटमार को इसका अनुमान रहता है। ये लोग शातीर होते हैं और आपके मन को पढ़ने में माहिर भी। आपका पैसा निकल जाता है और आप मन मसोजते हैं। पैसे के बारे में आपके व्यवहार और आदतों को काम वाली, कुछ पड़ोस, समाज और रिश्तेदारी वाले बखूबी समझते हैं और मौका देख कर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

हरीश बड़थ्वाल

जितने पैसे ले कर बाजार में जाएं, लौटते कमोबेश खाली हैं। वहां जो शातिर बैठे हैं, आपकी ख्वाहिश को ताड़ने में माहिर हैं। दशहरा-दिवाली के दिनों बल्कि जनवरी के पहले सप्ताह तक के उत्सवी दौर में खासकर उत्तर भारत में जमकर खरीदारी होती है और व्यापारियों की पौ बारह। कुछेक तो चंद दिनों में सालभर का कमा लेते हैं। छुटपुट वस्तुओं में मुख्यतः मिठाइयां और कपड़े होते हैं। बड़ी आइटमों में वाहन, जमीन या फ्रलैट की खरीद या बुकिंग। विशेष साज-सज्जायुक्त जगमगाते बाजार और यकायक प्रकट हो गई दुकानें सेल, छूट व विशिष्ट आफरों से ग्राहकों को लुभाने में कसर नहीं छोड़तीं। आदतन किफायती भी इन शुभ दिनों कुछ खरीद डालता है।

किफायत या मितव्ययता बरतना हेय या बुरी आदत नहीं बल्कि सद्गुण है जिसके फायदे ही फायदे हैं। यह केवल धन से संबद्व नहीं, इसका आशय वस्तुओं और सेवाओं के इष्ट उपयोग से है। फिजूलखर्ची पर नकेल नहीं कसेंगे तो उन महत्वपूर्ण वस्तुएं के लिए पैसा नहीं रहेगा जो आपकी प्राथमिकता सूची में, आपके दूरगामी हित में हैं। आदतें बिगड़ेंगी वह अलग। सब्जीवाले से एक किलो आलू, पौना किलो लौकी, आधा किलो प्याज, पावभर टमाटर आदि तुलवा कर ‘कितने हुए’ पूछ कर चुकाने में बड़प्पन नहीं है। बल्कि हर बार स्वयं हिसाब न करने से आपका गणित कमजोर पड़ जाएगा और आपकी आदत जानकर अगला आपको छल सकता है। दुकानदार ग्राहक का मन पढ़ने में माहिर होते हैं। बेंजामिन प्रफैंकलिन की नसीहत याद रखी जाए, ‘छुटपुट आवश्यक खर्चों पर नजर रखें, एक छोटा सुराख समुद्री जहाज को डुबो देता है।’

समझना होगा बगैर सुविचारे, भावावेश में या विक्रेता के बहकावे में आकर या कमीशन बतौर सामान, उपकरण आदि की खरीद से घरों, आफिस, फैक्ट्री तथा औद्योगिक परिसरों में अनचाही वस्तुओं और सामग्रियों का जमावड़ा होता है जिसे निबटाना खासी मुसीबत बन जाती है। उस बीपी नापने या काफी बनाने की मशीन या मिक्सी को याद करें जो दो-चार बार बमुश्किल इस्तेमाल हुई, खराबी आने पर मरम्मत के लिए दुकान में गई और लौट कर नहीं आई। 

सरकारी कार्यालयों में कदाचित ऐसे उपकरण खरीद लिए जाते हैं जिनका उपयोग लगभग नहीं होता। चार वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर सीएजी रिपोर्ट में करोड़ों रुपए से खरीदे गए रक्त भंडारण यूनिटों, अल्ट्रासाउंड तथा एक्स-रे मशीनों की भर्त्सना की गई जिनके उपयोग में नहीं आने का कारण कुशल तकनीशियनों की किल्लत बताया गया था। नामी अमेरिकी बैंकर प्रफांसिस सिसन के अनुसार मितव्ययता बरतना आज जितना आवश्यक है उतना अतीत में कभी न था। रिहाइशी, कार्यस्थल, उद्योग सभी क्षेत्रों में जगहें सिकुड़ रही हैं, कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं। ऐसे में कुछ भी नया या अतिरिक्त खरीदने के निर्णय में सूझबूझ और सुविचार आवश्यक है। सेमुएल जानसन के शब्दों में किफायत बरते बिना कोई भी समृद्व नहीं हो सकता और किफायत अपनाने से गरीबों की संख्या नगण्य रह जाएगी।

पैसा खर्चने वालों के दो परिप्रेक्ष्य हैं। एक वर्ग उन उम्रदारों का है जिन्होंने अपेक्षाकृत आर्थिक तंगी की पृष्ठभूमि के चलते या अन्यथा सहेज-सहेज कर भविष्य के लिए पैसा संचित किया। अब पर्याप्त उपलब्ध पैसे के बावजूद वे आदतन खुले हाथ नहीं खर्च पाते। कुछ उम्रदारों के तो शहर में दूर दराज के बैंकों में पड़े पैसे की उनके बच्चों को खबर न रहती। ऐसे अरबों रुपए न उन उम्रदारों या न उनकी संतति की जरूरतों में काम आए और दावेदार न होने से बैंकों द्वारा हड़प लिए गए।

दूसरे छोर पर नवपीढ़ी है जिसे बचत की नहीं सूझती और पैसा उड़ाने में अपनी शान समझती है। बचत की अनदेखी करने वालों में बहुसंख्य एमएनसी में कार्यरत आज मोटा वेतन पा रहे युवा हैं जिन्हें नहीं कौंधता कि भविष्य में दिन पलट सकते हैं और एकबारगी मोटा खर्चने की आदत से पिंड छुड़ाना बहुत कठिन होता है। इसी से जुड़ा एक सच उधारी का बढता चलन है। आज एक कार्यस्थल में प्रति सौ कर्मचारियों पर डेढ़ सौ क्रेडिट कार्ड मिलेंगे। उन्हें समझना होगा, शादी-ब्याह या मकान खरीद जैसे मामलों को छोड़कर डाइनिंग टेबल आदि फुटकर चीजें हासिल करने के लिए कर्जदारी अच्छी प्रवृत्ति नहीं है। वे उन बुजुर्गों को देखें जो संतान के दूसरे शहर या विदेश में रचपच जाने के कारण भाड़़े की सेवाओं के बूते बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति कर पा रहे हैं, गांठ में बचत न होती तो नामालूम कैसे गुजर होती।

बचत की परिपाटी नई नहीं। मनुष्य तथा अन्य प्राणी आदिकाल से भविष्य में कठिन, अप्रत्याशित परिस्थितियों से सुरक्षा कवच बतौर आज उपलब्ध पैसा या सामग्री का एक अंश बचाते रहे हैं। इस प्रवृत्ति को सवंर्धित करने की दृष्टि से 1925 से विश्व बचत दिवस मनाया जाता है। आशय यह रहता है कि पैसे को तकिए-गद्दे के नीचे छिपा कर बचाने के बदले इसे बैंक में रखने की आदत बनाई जाए ताकि पैसा सुरक्षित रहे और संचित निधियों का सदुपयोग देश के विकास कार्यों के लिए हो सके। ओलिवर गोल्डस्मिथ के अनुसार यदि राज्य के सभी लोग किफायत से चलें और हम बाहरी दिखावे के बजाए वास्तविक आवश्यकताओं पर ही खर्चा करें तो अभाव की परिस्थितियां कमोबेश खत्म हो जाएंगी और सर्वत्र अनंत खुशियां छा जाएंगीं।

जरूरी है कि आवश्यक, वांछनीय और अनावश्यक वस्तुओं और कुछ भी अतिरिक्त खरीद का निर्णय सुविचार से लिया जाए, अन्यथा लेने के देने पड़़ सकते हैं।

(लेखक के अन्य हिंदी-अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए उनके ब्लागwww.bluntspeaker.com पर जाएं।)

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