शनिवार, 14 मई 2022

कविताः जोकर

जोकर



रास्ते में बदबूदार तंग सड़क 

जहां से बाजार जाना होता है।

कतारों में खड़ी, हाथों में नोट लिये भीड़

सबको बस एक ही चीज की दरकार

पौवा, अद्वा, बोतल चाहिये

कॉमन शराब।

वो बदबूदार सड़क

मेरा ध्यान अपनी और खींच लेती है बरबस

जेहन में बोतलें घूमने लगती है

भारी सा वातावरण बोझिल करता है

लेकिन बोतलों में भरी गयी

या पाउच में पैक कॉमन शराब।

शराब की बदबू (पीने वालों के लिये खुशबू)

अटपटी सी नही लगती

नाक-भौं नही सिकोड़ता, उधर से गुजरते वक्त

बस दुर्गन्ध को गटक जाता हूं

नाक आंख के जरिये।

मैं शराब को महिमा मंडित नही करना चाहता

एडजस्ट करते हुये कुछ कहने का प्रयास करता हूं

एक आदमी की कहानी लिखने की खातिर

शब्दों का झुण्ड़ जोड़ रहा हूं

ताकि उस आदमी के साथ शब्द जुड़े।

वह कभी पैसे के पीछे नही भागा

न चाहत की- नाम कमाने की

उसने संघर्षशील नौजवानों को प्रेरित किया

बुराईयों के साथ-साथ अच्छाईयों का प्रतिनिधि वह। 

अपनी निजी जिन्दगी में वह असफल रहा

मैं उसकी प्राइवेसी को उधेड़ना नही चाहता

वह परिवार शब्द से ज्यादा विस्तृत है

आज वह जिन्दा नही है मगर यह सच 

सच होकर भी सच नही है।

वह आज हमारे बीच अनुपस्थित है

लेकिन यादों में, मयखानों में और भरी-खाली बोतलों में

उसकी परछाईयां उसे हमारे बीच जिन्दा रखेंगी

भले ही उसके नाम का कोई स्मारक, 

स्मृति चिन्ह नही बना।

वह अमर रहेगा क्योंकि मयखाना कभी खाली नही रहता

आत्मा शरीर का संबंध जैसे शराब और बोतल

आज भी जब किसी शराबी को नशे में

झूमते, गिरते उठते देखता हूं

तो मुझे उसका स्मरण हो आता है

उसकी रोजमर्रा की जरूरतें रोटी, कपड़ा और शराब

क्योंकि जहां वो गिरके ना उठ सका

वही  उसका घर, वहीं उसकी दुनिया और कब्र

सुबह पौवा, शाम अद्वा और दो-चार रोटी बतौर सनेक्स

इतने के लिये दिनभर की मेहनत मशक्कत

रंग जमाने की खातिर रंगीन, सादा, पाउच, बोतलों में

कॉमन शराब। 


-चेतन सिंह खड़का

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