दोपहर में होता है पितरों का भोजन
दक्षिण दिशा की और पिंडदान और तर्पण
पं0 चैतराम भट्ट
देहरादून। पितृ पक्ष यानि श्राद्ध पितरों का याद करने का समय माना गया है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं उस दिन तक पितृ पक्ष चलता है। इस दौरान पितरों की पूजा की जाती है और उनके नाम से तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। पितृ पूजा में कई बातें ऐसी हैं जो रहस्यमयी हैं और लोगों के मन में सवाल उत्पन्न करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है।
श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए बताया गया है। लेकिन दोपहर का समय पितरों के लिए माना गया है। इसलिए कहते हैं कि दोपहर में भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। दिन का मध्य पितरों का समय होता है।
दरअसल पितर मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में निवास करते हैं जो चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है। दूसरी वजह यह है कि दोपहर से पहले तक सूर्य की रोशन पूर्व दिशा से आती है जो देवलोक की दिशा मानी गई है। दोपहर में सूर्य मध्य में होता है जिससे पितरों को सूर्य के माध्यम से उनका अंश प्राप्त हो जाता है। तीसरी मान्यता यह है कि दोपहर से सूर्य अस्त की ओर बढ़ना आरंभ कर देता है और इसकी किरणें निस्तेज होकर पश्चिम की ओर हो जाती है। जिससे पितृगण अपने निमित्त दिए गए पिंड, पूजन और भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।
पितृपक्ष में पितरों का आगमन दक्षिण दिशा से होता है। शास्त्रों के अनुसार दक्षिण दिशा में चंद्रमा के ऊपर की कक्षा में पितृलोक की स्थिति है। इस दिशा को यम की भी दिशा माना गया है। इसलिए दक्षिण दिशा में पितरों का अनुष्ठान किया जाता है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब दशरथ की मृत्यु हुई थी तो भगवान राम ने स्वपन में उनको दक्षिण दिशा की तरफ जाते हुए देखा था। रावण की मृत्य से पहले त्रिजटा ने स्वप्न में रावण को गधे पर बैठकर दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए देखा था।
सनातन धर्म के अनुसार किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। शरीर को भी पिंड माना जा सकता है। धरती को भी एक पिंड रूप है। हिंदू धर्म में निराकार की पूजा की बजाय साकार स्वरूप की पूजा को महत्व दिया गया है क्योंकि इससे साधना करना आसान होता है। इसलिए पितरों को भी पिंड रूप मानकर यानी पंच तत्वों में व्यप्त मानकर उन्हें पिडदान दिया जाता है।
पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए चावल को पकाकर उसके ऊपर तिल, शहद, घी, दूध को मिलाकर एक गोला बनाया जाता है जिसे पाक पिंडदान कहते हैं। दूसरा जौ के आटे का पिंड बनाकर दान किया जाता है। पिंड का संबंध चंद्रमा से माना जाता है। पिंड चंद्रमा के माध्यम से पितरों को प्राप्त होता है। ज्योतिषीय मत यह भी है कि पिंड को तैयार करने में जिन चीजों का प्रयोग होता है उससे नवग्रहों का संबंध है। इसके दान से ग्रहों का अशुभ प्रभाव दूर होता है। इसलिए पिंडदान से दान करने वाले को लाभ मिलता है।
पितरों की पूजा में सफेद रंग का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि सफेद रंग सात्विकता का प्रतीक है। आत्मा का कोई रंग नहीं है। जीवन के उस पार की दुनिया रंग विहीन पारदर्शी है इसलिए पितरों की पूजा में सफेद रंग का प्रयोग होता है। दूसरी वजह यह है कि सफेद रंग चंद्रमा से संबंध रखता है जो पितरों को उनका अंश पहुंचाते हैं।
पुराणों के अनुसार व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि को हुई होती है, उसी तिथि में उसका श्राद्ध करना चाहिए। यदि जिनकी मृत्यु के दिन की सही जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए। श्राद्ध मृत्यु वाली तिथि को किया जाता है। मृत्यु तिथि के दिन पितरों को अपने परिवार द्वारा दिए अन्न जल को ग्रहण करने की आज्ञा है। इसलिए इस दिन पितर कहीं भी किसी लोक में होते हैं वह अपने निमित्त दिए गए अंश को वह जहां जिस लोक में जिस रूप में होते हैं उसी अनुरूप आहार रूप में ग्रहण कर लेते हैं।