शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

कैसे काम करता है शेयर बाजार

कैसे काम करता है शेयर बाजार



यह अक्सर छोटी-मोटी बातों पर गिर-चढ़ जाता है
प0नि0डेस्क
देहरादून। 16वीं सदी में डच ईस्ट इंडिया कंपनी का विदेशी व्यापार में दबदबा था। कंपनी दुनियाभर में जहाजों के जरिए व्यापार कर रही थी लेकिन जहाजों का संचालन एक महंगा सौदा था। इसलिए कंपनी ने हर बंदरगाह के आसपास रहने वाले व्यापारियों की मदद लेना तय किया।
कंपनी ने व्यापारियों से संपर्क कर कहा कि अगर वे जहाजों के संचालन में पैसा लगाते हैं तो जहाजों से होने वाले मुनाफे में भी उन्हें हिस्सा मिलेगा। व्यापारियों को ये योजना पसंद आई और उन्होंने जहाजों के संचालन में पैसा निवेश किया। इस व्यापार और हिस्सेदारी को दुनिया का पहला शेयर मार्केट कहा जाता है।
मुंबई के कोलाबा की दलाल स्ट्रीट पर मौजूद बीएसई एशिया का सबसे पुराना शेयर बाजार है। 1855 में करीब 20 व्यापारी टाउन हॉल के पास एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर व्यापारों में हिस्सेदारी बेचने और खरीदने का काम करते थे। ये एक अनाधिकारिक शेयर बाजार था। 1875 में इन व्यापारियों ने एक संगठन बनाया। द नेटिव शेयर एंड स्टॉक ब्रोकर्स एसोसिएशन नाम की संस्था रजिस्टर हुई और शेयर मार्केट का काम करने लगी।
1928 में यह वर्तमान की बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ और 1957 में इसे सरकारी मान्यता मिल गई। शेयर बाजार के पूरे काम की निगरानी स्टॉक एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) करता है।
मान लीजिए किसी के पास एक अच्छा बिजनेस आइडिया है लेकिन उसे जमीन पर उतारने के लिए पैसा नहीं है। वह किसी निवेशक के पास गया लेकिन बात नहीं बनी और ज्यादा पैसे की जरूरत है। ऐसे में एक कंपनी बनाई जाएगी। वह कंपनी सेबी से संपर्क कर शेयर बाजार में उतरने की बात करती है। कागजी कार्रवाई पूरा किया जायेगा और शेयर बाजार का काम शुरू होगा। शेयर बाजार में आने के लिए नई कंपनी होना जरूरी नहीं। पुरानी कंपनियां भी शेयर बाजार में आ सकती हैं।
जो कंपनियां शेयर बाजार या स्टॉक मार्केट में लिस्टेड होती हैं उनकी हिस्सेदारी बंटी रहती है। स्टॉक मार्केट में आने के लिए सेबी, बीएसई और एनएसई (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) में रजिस्टर करवाना होता है। जिस कंपनी में कोई भी निवेशक शेयर खरीदता है वो उस कंपनी में हिस्सेदार हो जाता है। ये हिस्सेदारी खरीदे गए शेयरों की संख्या पर निर्भर करती है। शेयर खरीदने और बेचने का काम ब्रोकर्स करते हैं। कंपनी और शेयरधारकों के बीच सबसे जरूरी कड़ी का काम ब्रोकर्स ही करते हैं।
शेयर बाजार में अहम होता है जिसका फुल फॉर्म है इनिशिअल पब्लिक ऑफरिंग। जब कोई भी कंपनी पहली बार अपने शेयर जारी करने का प्रस्ताव लाती है उसे आईपीओ कहते हैं। आईपीओ के प्रस्ताव को प्राइमरी स्टेज मार्केट और शेयर आने पर उनकी खरीद बिक्री को सेकेंडरी स्टेज मार्केट कहा जाता है। जब सेकेंडरी स्टेज मार्केट शुरू होता है तो निवेशकों की कोशिश सस्ते में शेयर खरीद उसे महंगे दामों पर बेचने की होती है। एक निश्चित समय में शेयर की बिक्री करने पर सरकार को भी टैक्स देना होता है।
स्टॉक एक्सचेंज को शेयर की मंडी कह सकते हैं। भारत में कई सारे स्टॉक एक्सचेंज हैं लेकिन बीएसई और एनएसई दो सबसे बड़े और महत्वपूर्ण स्टॉक एक्सचेंज हैं. इनके अलावा कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज, अहमदाबाद स्टॉक एक्सचेंज, इंडिया इंटरनेशनल स्टॉक एक्सचेंज समेत कई स्टॉक एक्सचेंज हैं। 2015 में जयपुर स्टॉक एक्सचेंज और भोपाल स्टॉक एक्सचेंज को बंद कर दिया गया था। बीएसई और एनएसई दुनिया के 10 सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज में शामिल हैं। एनएसई 1994 में खोला गया था।
शेयर मार्केट में सेंसेक्स और निफ्टी दोनों इंडेक्स यानी सूचकांक हैं। सेंसेक्स दो शब्दों सेंसटिव और इंडेक्स से बनकर मिला है। हिंदी में इसे संवेदी सूचकांक कहते हैं। बीएसई में मुख्य तौर पर 30 बड़ी कंपनियां लिस्टेड हैं। इन 30 कंपनियों की सेहत से ही सेंसेक्स तय होता है.।सेंसेक्स इन कंपनियों की वित्तीय सेहत का पैमाना है। यह 1 जनवरी 1986 से शुरू हुआ था।
इसकी एक जटिल कैल्कुलेशन है लेकिन सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि सेंसेक्स का बढ़ना इन 30 कंपनियों की स्थिति मजबूत करता है। बीएसई में लिस्टेड 30 कंपनियां स्थाई नहीं होतीं। समय के अनुसार इस लिस्ट में कंपनियां आती-जाती रहती हैं लेकिन इनकी संख्या 30 से ज्यादा नहीं बढ़ती। एक इंडेक्स कमिटी इन 30 कंपनियों का चुनाव करती है।
निफ्टी एनएसई का सूचकांक है। निफ्टी नेशनल और फिफ्टी से मिलकर बना शब्द है। इसमें 22 अलग-अलग सेक्टरों की 50 कंपनियां लिस्टेड होती हैं। इन 50 कंपनियों की वित्तीय सेहत से निफ्टी सूचकांक तय होता है। सेंसेक्स और निफ्टी के अलावा भी कई सारे इंडेक्स होते हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यही दो हैं।
मार्केट कैप मतलब शेयर बाजार में आने के बाद कंपनी की कुल पूंजी। मानकर चलिए किसी कंपनी के पास 10 लाख रुपये की पूंजी है लेकिन उसे और पूंजी की जरूरत है। ऐसे में उसने पचास प्रतिशत हिस्से के शेयर जारी कर दिए। मानकर चलिए 1 लाख शेयर जारी किए गए जिनकी कीमत प्रति शेयर 10 रुपये थी। इसको आईपीओ निकालना कहा जाएगा। कंपनी को उम्मीद थी की इससे उन्हें 10 लाख रुपये मिलेंगे लेकिन निवेशकों को कंपनी का आइडिया अच्छा लगा और उसके शेयरों की डिमांड बढ़ गई। कंपनी के शेयर 10 की जगह 50 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से बिके। ऐसे में कंपनी को 50 लाख रुपये की कमाई हुई। पूंजी की ये पूरी कमाई मार्केट कैपिटलाइजेशन या मार्केट कैप कहलाती है।
अब जब कंपनी की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी पब्लिक में बिक गई है तो इस 50 प्रतिशत हिस्से से ही कंपनी का सूचकांक तय होगा। ये 50 प्रतिशत हिस्सा शेयर मार्केट के हिसाब से चलेगा। शेयर बाजार में बढ़ोत्तरी पर कंपनी का मार्केट कैप बढ़ेगा और घटने पर घटेगा। यह हिस्सा कंपनी के कामकाज से मुक्त यानी फ्री रहेगा। इसलिए इसे फ्री फ्लोट फैक्टर कहते हैं। इसकी कैल्कुलेशन का भी एक फॉर्मूला है.
शेयर मार्केट में किसी भी कंपनी के सूचकांक की गणना बेस ईयर से होती है। सेंसेक्स के मामले में 1978-79 और निफ्टी में 1995 को बेस ईयर माना जाता है। 1979 में सेंसेक्स की वैल्यू 100 मानी गई है। आज ये 39000 के पार है। मतलब इतने सालों  में इसमें करीब 390 गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। अगर किसी कंपनी का बेस ईयर में मार्केट कैप 50 हजार था और आज वह 50 लाख है तो उसका इंडेक्स डिवाइजर 100/50000 यानी 0.002 और इंडेक्स 5000000’0.002 यानी 10000 होगा. यही तरीका 1995 को बेस ईयर और 1000 को बेस वैल्यू मानकर निफ्टी के लिए होता है।
निफ्टी और सेंसेक्स के लिए स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड कंपनियां अपने-अपने सेक्टरों की अग्रणी कंपनियां होती हैं। ऐसे में इनमें आने वाली गिरावट या चढ़ाव उस सेक्टर में आने वाली हलचल का भी इशारा होता है। बीएसई में सेंसेक्स के लिए लिस्टेड 30 कंपनियों के अलावा करीब 5000 से ज्यादा कंपनियां लिस्टेड हैं लेकिन इन छोटी कंपनियों का शेयर बाजार पर इतना असर नहीं होता। यही बात निफ्टी पर भी लागू होती है।
इन दोनों सूचकाकों को तय करने वाला सबसे बड़ा फैक्टर है कंपनी का प्रदर्शन। अगर कंपनी अच्छा परफॉर्म करेगी तो लोग उसके शेयर खरीदना चाहेंगे और शेयर की मांग बढ़ने से उसके दाम बढ़ेंगे।  अगर कंपनी का प्रदर्शन खराब रहेगा तो लोग शेयर बेचना शुरू कर देंगे और शेयर की कीमतें गिरने लगती हैं।
इसके अलावा कई दूसरी चीजें हैं जिनसे निफ्टी और सेंसेक्स पर असर पड़ता है। मसलन भारत जैसे कृषि प्रधान देश में बारिश अच्छी या खराब होने का असर भी शेयर मार्केट पर पड़ता है। खराब बारिश से बाजार में पैसा कम आएगा और मांग घटेगी। ऐसे में शेयर बाजार भी गिरता है। हर राजनीतिक घटना का असर भी शेयर बाजार पर पड़ता हैं। चीन और अमेरिका के कारोबारी युद्ध से लेकर ईरान-अमेरिका तनाव का असर भी शेयर बाजार पर पड़ता है। इन सब चीजों से व्यापार प्रभावित होते हैं।
मोदी सरकार की दोबारा पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी पर सेंसेक्स 40 हजार पार चला गया था। इसकी वजह है कि बाजार मानता है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार सख्त फैसले ले सकती है। हालांकि इस सरकार के पहले पूर्ण बजट के दौरान ही बाजार ने नाखुशी प्रकट की है।
एक बात और सेंसेक्स और निफ्टी गिरने का मतलब यह नहीं है कि सारी कंपनियां घाटे में जा रही हैं या सबका पैसा डूब रहा है। सेंसेक्स 30 बड़ी कंपनियों और निफ्टी 50 बड़ी कंपनियों से तय होता है. इसलिए कई बार सेंसेक्स और निफ्टी में गिरावट के बावजूद कई छोटी कंपनियां अच्छा परफॉर्म करती रहती हैं।
बुल मार्केट तब होता है जब अर्थव्यवस्था में सब कुछ बढ़िया हो। लोगों के लिए रोजगार हो, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ रहा हो और स्टॉक ऊपर जा रहे हों। जब कोई निवेशक बाजार को लेकर आशावादी हो और उसे लगता हो कि स्टॉक ऊपर की ओर जाएगा, तो वह बुल कहलाता है।


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