शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

कौडियों का मोल

कौडियों का मोल

शूरवीर रावत

देहरादून।



गुस्से में आदमी पता नहीं क्या-क्या गालियां देता है। गालियों के अलग-अलग रूप है, अलग-अलग स्तर है। देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार गालियों का रूप बदल जाता है। गालियां सुनना कोई भी पसन्द नहीं करता है, किन्तु यदि कोई व्यक्ति गालियों में आपके दुश्मन की सात पीढ़ियां नाप रहा हो तो वह सुनना कर्णप्रिय हो सकता है। खैर!!


गाली नहीं उलाहना है ‘दो कौड़ी की औकात नहीं और...।’
आखिर ये कौड़ी है क्या? यह प्रश्न सालों से दिमाग को मथ रहा था। उत्तर मिला भी तो सुदूर अण्डमान भ्रमण के दौरान पोर्टब्लेयर के ‘‘नैवल मैरीन म्यूजियम समुद्रिका’’ में।
प्रागैतिहासिक काल में कब्रिस्तानों से प्राप्त प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि कौड़ियां (सीपियां) मुद्रा का प्रारम्भिक रूप है। इसका छोटा, चमकीला व आकार में एक समान होना, कम बजन, प्रचुर मात्रा में आसानी से उपलब्धता आदि गुणों के कारण कौड़ी को मुद्रा रूप में प्रयोग के लिए उचित माना गया। मुद्रा रूप में कौड़ियों का उपयोग अफ्रीका, दक्षिण भारत, फिलीपींस व मलाया में अधिक हुआ माना जाता है। 

प्राचीन चीन में तो बिक्रमीसंवत के दो हजार साल पहले से ही कौड़ियों का उपयोग हुआ माना जाता है।
सिकन्दर महान से पूर्व भारत में कौड़ियों का प्रचलन व्यापक रूप में था। - - - - - - एक खोज के अनुसार सन् 1740 में एक भारतीय रुपये का मूल्य 2400 कौड़ियां थी और सन् 1845 में 6500, जबकि सन् 1920 में शाहपुर सरगोदया में एक रुपये के बदले कुल 960 कौड़ी बदली गयी। 

कौड़ियों को धन का प्रतीक भी माना जाता है। शायद इसीलिए माँ लक्ष्मी की फोटो में कौड़ियों को उनके पैरों पर दिखाने की परम्परा है।

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