बुधवार, 3 मार्च 2021

 कोरोना संक्रमण को देखते हुए एसओपी का पालन करना मजबूरी भी, जरूरी भी

कुंभ मेले की दुश्वारियांः मजबूर सरकार भी, संत भी



प0नि0ब्यूरो

देहरादून। एक तरह से कुंभ मेले का आगाज हो चुका है। लेकिन प्रशासन-संतों के बीच रूठने मनाने का सिलसिला जारी है। गतिरोध कभी धीमी गति के काम लेकर हो जाता है तो कभी एसओपी वजह बन रही है। लेकिन नाराजगी है कि कम होने का नाम नहीं ले रही है।

हालांकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह पर सही ठहरते है। मेला हो और श्रद्वालू बंदिशों की वजह से न आ सकें, यह संतो को भला क्यों मंजूर होगा। यह व्यापारियों को भी नागवार गुजर रहा है। लेकिन सरकार और मेला प्रशासन भी मजबूर है कि यदि कोरोना संक्रमण बेकाबू हो गया तो जवाब देना भारी हो जायेगा। पिफर सवाल जीवन मरण का है। मेले में श्रद्वालू नहीं आयेगे तो भी स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी का सवाल है। और कोरोना संक्रमण का खतरा हुआ तो भी जवाब देना मुश्किल हो जायेगा।

बड़ी मुश्किल से संतों और साधु महात्माओं का विवाद सुलझता है तो फिर कोई न कोई समस्या आड़े आ जाती है। गतिरोध बन जाता है। मेला प्रशासन असमंजस में पड़ जाता है कि किस किस को खुश करें। किस किस की नाराजगी मोल लें। एक तरह एसओपी का डंडा है तो दूसरी तरफ साधु संतों और स्थानीय व्यापारियों की रोजी-रोटी का गंभीर सवाल। लेकिन इतने भर के लिए आने वाले श्रद्वालूओं का जीवन दांव पर नहीं लगाया जा सकता। इस बात को हर कोई जान रहा है। लेकिन विवशता सबकी अपनी-अपनी जगह उचित ही है।  

चूंकि कोरोना महामारी का संकट गंभीर है और लोगों के जीवन को संकट में डालना समझदारी नहीं हो सकती। इसलिए केन्द्र द्वारा जारी एसओपी बेहद सख्त है। इसका खामियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ेगा। वर्षो के इंतजार के बाद लोगों के चेहरे खिले थे कि काम धंधे का समय आया लेकिन मेले की एसओपी ने उसपर पानी फेर दिया है। अब शिकायत करने वाला और उसका समाधान करने वाले दोनों को समझ नहीं आ रहा कि जायें तो जायें कहां? 

हर कोई किसी तरह बला टालने का प्रयास कर रहा है। शिकवे शिकायत तो बहुत है परन्तु किया क्या जाये? जो शिकायत कर रहें है, कमोबेश उनपर ही जिम्मेदारी भी है। निश्चित तौर पर श्रद्वालूओं पर सख्ती होगी तो उनकी तादाद कम होगी। मेला जमेगा नहीं तो वर्षो से इंतजार में बैठे लोगों का रोजी का ख्वाब अधूरा रह जायेगा। लेकिन क्या अपने फायदे के लिए लोगों की जिन्दगियां दांव पर लगायी जा सकती है? लगायी जानी चाहिये? इसका उत्तर किसी को नहीं सूझ रहा है। 

सवाल और उनके जवाबों की तलाश में अब भड़ास ही निकल पा रही है। क्योंकि सनातनी परम्परा में एक कहावत मशहूर है कि जान है तो जहान है। अब तो यहीं मुमकिन है कि सभी अपने अपने हिस्से का घाटा सहकर किसी तरह आयोजन को संपन्न कराने में भागीदार बनें।


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