सोमवार, 17 मई 2021

संस्मरणः रंगाली बिहू

संस्मरणः रंगाली बिहू



शूरवीर रावत

देहरादून। ‘असम एशोसियेसन, देहरादून’ द्वारा ओ0एन0जी0सी0 के आडोटोरियम में रंगाली बिहू 2016 का आयोजन किया गया था। रंगाली बिहू को बोहाग बिहू भी कहा जाता है। बोहाग अर्थात बैसाख। एक मित्र द्वारा सूचना देने पर मैं बिहू का आनन्द उठाने से अपने को नहीं रोक पाया। काफी लम्बे अरसे बाद असम के रंगाली बिहू का लाईव शो देख रहा था। अतः स्वाभाविक रूप से शो के दौरान मेरा मन मयूर भी नाच उठा। 

अब क्या कहूं, आसाम बिहू की बात ही जो निराली है। मेरा मन आज भी आसाम की यादों को नहीं भुला पाया और ऐसे कार्यक्रम मुझे सुदूर आसाम के हरे-भरे चाय बागानों के बीच ले जाते हैं। मैं यादों में खो जाता हूं। नवोदित गायक पापोन के (देवारिश में गाये) शब्दों में कहूं तो-

‘नदीर काखोत वनह वताहत असे जो मोर प्राण।

जुनोर पोहोरत तारा हिफारोत असे जो मोर प्राण।..’  

(नदी किनारे वन प्रान्तर की हवाओं में मेरे प्राण बसे हुये हैं। चांद की चांदनी और सितारों के उस पार मेरा मन जा बसा है।...)

भौगोलिक व भाषाई आधार पर प्रान्तों, देशों व महाद्वीपों के मध्य अनेक भिन्नतायें हो सकती है। किन्तु सांस्कृतिक स्तर पर प्रायः समानता देखने को मिलती है। बसन्त ऋतु तो गढ़वाल के लिये भी हर्षाेल्लास लेकर आती है। चैत्र बीतने के बाद सक्रान्ति को घर-घर में स्वांले-पकोड़े-पापड़ी का भोज और बैसाख में जगह-जगह लगने वाले मेले कौन भूल सकता है। पंजाब में ही जीवन्तता का त्योहार बैसाखी का उत्साह भी तो किसी से छिपा हुआ नहीं है। असम में तो पूरे बैसाख भर चलने वाले ‘रंगाली बिहू’ का अन्दाज ही अनोखा व निराला है। असमिया गायिका ‘प्रार्थना चौधरी’ का गीत याद आता है-

‘..बिहु रे ओय तोली से नास-नासू लागे।

ओ मोर सेनाय होय तेने कु न साबी बोर मोरम लगाक्वो

साले तुमार सकूलोय मोरम लागे तोमाल्वै...’

(... बसन्त का उल्लास लिये बिहू के इस मौसम में मन मयूर ऐसे ही नाच उठता है। असीम प्यार उड़ेलते हुये यदि तुम मुझे इसी तरह अपलक निहारोगे तो मेरी दशा एक घायल हिरनी की सी हो जायेगी। ओ प्रिय! तुम्हें पता है कि तुम्हारी एक झलक मात्रा से ही मदहोशी छा जाती है।....)

इतने सुन्दर शब्दों के माध्यम से प्रेम की अभिव्यक्ति और यह प्रणय वेदना अन्यत्र देखने को कहां मिलती है। माधुर्य रस से परिपूर्ण इस प्रकार के गीत आसाम की धरती की देन है। (अप्रैल 24, 2016)


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