सोमवार, 20 सितंबर 2021

एक पक्ष पूर्वजों के प्रति आभार ज्ञापन काः वार्षिक श्राद्व

 एक पक्ष पूर्वजों के प्रति आभार ज्ञापन काः वार्षिक श्राद्व

हरीश बड़थ्वाल

                                                                       हरीश बड़थ्वाल

नई दिल्ली। पूर्वजों को सम्मान देने की परंपरा अन्य संस्कृतियों में भी है। सूचना विस्पफोट, भागदौड़ और घोर व्यावसायिकता वाले मौजूदा युग में कुछ लोग लोक-परलोक, पितृ लोक और श्राद्व की अवधारणाओं को बेशक खारिज कर रहे हैं, तो भी प्रत्येक व्यक्ति अपनी एक लंबी आनुवांशिक श्रृंखला का अंतिम परिमार्जित रूप तो है ही। और इसके लिए उसने अपने दिवंगत माता-पिता या अन्य पूर्वजों से जो भी, जितना भी पाया है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखने वाला व्यक्ति मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं रह जाता। सनातनी संस्कृति में पूर्वजों की विशेष आराधना नवरात्रि से पूर्व कृष्ण पक्ष के 15 दिनों (इस वर्ष 16 दिन) में श्राद्व कर्म द्वारा की जाती है। इस अवधि में हम अपने दिवंगत पूर्वजों को इहलोक में आमंत्रित कर उनके प्रति अपनी श्रद्वा व्यक्त करते हैं।

दिवंगत आत्माओं, पूर्वजों तथा वरिष्ठ जनों की स्तुति और उनसे आशीर्वाद हासिल करने की चाहत पश्चिमी संस्कृतियों में भी रही है। यूनान, मिस्र, चीन आदि के अनेक समुदायों में पार्थिव शरीर छोड़ चुके तथा वयोवृद्वों के निमित्त विभिन्न रस्मों का चलन है। बड़े-बूढ़ों और पूर्वजों के प्रति श्रद्वा भाव में भारत का कोई सानी है तो वह है चीन। दिवंगत आत्माओं और बड़े-बूढ़ों को सम्मान देने की चर्चा में वहां के दार्शनिकों, मुख्यतया कन्फ्रयूशियस और लाओ जू ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। 



भारतीय दर्शन में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा नष्ट नहीं होती, परमात्मा में उसका विलय हो जाता है। दिवंगत आत्मा की शांति के लिए उसकी कब्र पर जाना और पुष्प अर्पित करने की रस्म सर्वविदित है। हमारे यहां श्राद्व और तर्पण देने के पीछे वही भाव है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज के युवाओं में कृतज्ञता के भाव का तेजी से लोप हो रहा है। इष्ट देवी-देवताओं व अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्ति को उस सुदीर्घ श्रृंखला से जुड़े रहने का अहसास कराती है जिसके छोर का टोह पाने में हम अक्षम हैं और जिसका वह वास्तव में अटूट अंग है। 

प्रत्येक व्यक्ति चिरकाल से प्रवाहमान उस चेतना का अद्यतन रूप है। परंपरा से तादात्मय स्थापित होने पर व्यक्ति को अलौकिक शक्ति व ऊर्जा मिलती है और वह सपफलता की ओर अग्रसर होता है। कुछ वैसे ही, जैसे सयाने व्यक्तियों का नैतिक समर्थन पाकर हम कोई भी कार्य बखूबी और सफलतापूर्वक संपन्न कर लेते हैं। पूर्वजों व बड़े-बूढ़ों के आदर से हम एक परंपरा की कड़ी में बंधते हैं और उस परम शक्ति से लाभान्वित होते हैं।

दिवंगतों-पूर्वजों और व्यक्ति के बीच बना यह तादात्म्य अलौकिक ऊर्जा का संचार करता है। परंपरा से जुड़े रहने तथा आभार महसूस करने की वृत्ति एक सराहनीय मानवीय गुण है। यह व्यक्ति की उन्नति का एक ऐसा साधन है, जो उसे आजीवन आनंद की प्राप्ति कराते हुए सफलता की चोटी तक ले जाता है। स्वयं ऐसे अभ्यास से हम भावी पीढ़ी को भी सही राह दिखाते हैं और एक अच्छे समाज के निर्माण में भागीदार बनते हैं।


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