रविवार, 10 अक्तूबर 2021

मन को समझाएं, शरीर तो इसका आज्ञाकारी सेवक है

 मन को समझाएं, शरीर तो इसका आज्ञाकारी सेवक है

- हरीश बड़थ्वाल

                                                                 लेखक - हरीश बड़थ्वाल

इस प्रकार की बातें आप बहुधा सुनते होंगे- 

वजन कम करना मेरे बस में नहीं है। कितनी भी भूख हो, मैं फांका कर लूंगा पर खरबूजा नहीं खा सकता। मुझे तोरी की सब्जी से एलर्जी हो जाती है। काफी पीने के बाद मुझे नींद नहीं आती। बस की यात्रा में मुझे उल्टी आनी ही है। मुझ से कुछ भी करवा लो, सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता।

इस प्रकार की सोची, बोली बातें हमारे अंग-प्रत्यंग और कोशिकाएं सुनती रहती हैं और वैसा ही आचरण करने लगती हैं। सत्य यह है कि शरीर मन का आज्ञाकारी सेवक है। हेनरी फोर्ड कहते हैं, जब आप मन में बैठा देते हैं कि (1) आप अमुक कार्य कर सकते हैं या (2) अमुक कार्य कदापि नहीं कर सकते, दोनों स्थितियों में आप सही होते हैं। जिसमें हौसला है, वह कार्य पूरा कर डालेगा। इसके विपरीत जिसने मान लिया कि पफलां कार्य आज तक नहीं हुआ तो अब कैसे हो जाएगा या जिसे कोई नहीं कर पाया वह मैं कैसे कर सकता हूं, उसने अपनी पराजय लॉक कर दी। 

जो शारीरिक पीड़ा एक व्यक्ति को बुरी तरह झकझोर देती है उतनी ही पीड़ा के बावजूद दूसरा व्यक्ति अपने समूचे कार्य निबटाते रहता है। सभी मनुष्यों के माथे में अवस्थित मस्तिष्क का वजन बराबर होता है, लगभग 1.4 किग्रा, अंतर सोच से आता है। अपने गिर्द भी उच्च मनोबल के बूते स्वास्थ्य और जीवंतता के उदाहरण आपको मिलेंगे। मनोवैज्ञानिक बताते हैं, हम जितने भी कष्ट झेलते हैं उनमें से मात्र 5 प्रतिशत दूसरे के कारण होता है, शेष 95 प्रतिशत हमारे मस्तिष्क की उपज होते हैं, यानी हमारी अस्वस्थ, नैगेटिव सोच की परिणति।

शारीरिक दुरस्ती से अधिक अहम है मन की दुरस्ती

नीरोग, खुशनुमां जीवन का दारोमदार स्वस्थ शरीर के बजाए मन पर अधिक है। वह इसलिए कि हमारी शारीरिक प्रक्रियाएं कैसे संचालित होंगी, इसके अनुदेश मन जारी करता है। स्वस्थ रहने की इच्छा भर से रोगी आधा ठीक हो जाता है। बालाजी के दर्शन से मेरी फलां समस्या दूर हो जाएगी, यह विश्वास मन में घर जाए तो बालाजी की तैयारी के दौरान और वहां पहुंचते-पहुंचते ही व्यक्ति स्वस्थ हो जाएगा। मानसिक रोग की जड़ हमारी सोच है।

हालांकि अच्छे स्वास्थ्य की डब्ल्यूएचओ की परिभाषा में मानसिक और सामाजिक पक्षों का उल्लेख है (न केवल रोगों से पूर्ण मुक्ति बल्कि शारीरिक, मानसिक और सामाजिक दृष्टि से बेहतरी) किंतु मनुष्य के दिव्य पक्ष की भूमिका का डब्ल्यूूएचओ और आधुनिक चिकित्सा में कोई स्थान नहीं है। नोबल विजेता स्टीफेन हाकिन्स सरीखे खरे व्यक्ति की जीवंतता को समझने के लिए मानना पड़ेगा कि मन-तन की खैरियत से इतर मनुष्य का दैविक पक्ष है जो उसे न केवल स्वस्थ मुद्रा में रखने में सक्षम है बल्कि उसे अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले जाता है।

मनुष्य सहित विश्व का प्रत्येक जीव एक अबूझ, विराट महाशक्ति का सूक्ष्म प्रतिरूप है, हम सभी में उसका अंश विद्यमान है, ऐसा समझने वाला स्वस्थ, जीवंत, और सामान्यतः नीरोग व पाजिटिव मुद्रा में रहेगा। सकारात्मक विचार शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं, नकारात्मक विचारों से स्नायु सिकुड़ जाते हैं, शरीर की रासायनिक प्रक्रियाएं बिगड़ती हैं, श्वसन क्रिया कम या अधिक हो जाती है तथा शरीर विभिन्न रोगों को आकृष्ट करता है। मन और शरीर एक दूसरे से गुंथे हुए, एकल अस्मिता के दो पाट हैं। आधुनिक चिकित्सा की इकतरपफा सोच में मानव शरीर को मात्रा जैविक इकाई समझा जाता है, उसके दिव्य पक्ष पर उसे कुछ नहीं कहना।

स्वास्थ्य के रखरखाव में भारतीय चिकित्सा प्रणाली आदिकाल से समावेशी रही है जिसमें मन, चित्त, भावनाएं, व्यक्ति विशेष की प्रकृति, प्रकृति से तालमेल आदि सभी पक्षों पर विचार होता रहा है। यही ‘आयुर्विज्ञान’ के मायने हैं। आशीर्वाद देते समय ‘चिरंजीव रहो’ की प्रथा में अच्छे स्वास्थ्य की कामना निहित है। तन-मन को स्वस्थ रखने पर जोर देने के लिए इसे धार्मिक कर्तव्य से जोड़ा गया, ‘शरीरं धर्म खलु साधर्नीं यानी शरीर भगवत् प्राप्ति का साधन है।

समाज, घर, कार्यस्थल, बाजार, सोशल मीडिया आदि में, आते जाते, हवा कुछ यों चल रही है कि हम स्वस्थ न रह सकें। दोगला व्यवहार, शिकायती सोच, एकाकीपन, वैमनस्य, संग्रही वृत्ति, झूठी प्रशंसा की चाहत, निम्न आत्म सम्मान, अपने कार्य या उपलब्धि के लिए दूसरों की सहमति की आंकाक्षा, उनके अनुमोदन के लिए लालायित रहना जिन्हें आपकी कद्र नहीं आदि में लिप्त व्यक्ति मन को संयत कैसे रखेगा? ऐसे व्यक्ति का सही मित्र भी न होगा जो मन-चित्त के डगमगाने पर मनोश्चिकित्सक से ज्यादा कारगर होता है। न ही उसके चेहरे पर नैसर्गिक मुस्कान होगी। जोसेफ एडीसन ने कहा, ‘खिलखिलाता चेहरा सर्वाेत्तम स्वास्थ्य संवर्धक है, मन के लिए यह उतना ही लाभकारी है जितना शरीर के लिए।’

मानसिक स्वास्थ्य का वैश्विक और परिदृश्य चिंताजनक है। विभिन्न स्रोतों के अनुसार संप्रति देश के 15 से 20 प्रतिशत व्यक्ति डिप्रेशन, उद्विग्नता आदि मनोरोगों से ग्रस्त हैं, यह प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है। चेतावनी जताई जा रही है अगले 12 वर्षों में मानसिक और गैर-मानसिक रोगियों की संख्या बराबर हो जाएगी। उपचार में एक बड़ी बाधा कुशल मनोश्चिकित्सकों और संसाधनों की कमी है। अपने यहां मनोरोगों में बढ़त के पीछे पश्चिमी समाज से प्रतिस्पर्धा और स्वदेशी तौरतरीकों की अनदेखी मुखर हैं। जनजीवन में जरा-जरा सी बातों पर घर, कार्यस्थल तथा समुदायों में अशांति, मनमुटाव और क्लेश बढ़ रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार महानगरों में एक तिहाई विवाह रस्म के 6 माह में टूट जाते हैं। डब्ल्यूूएचओ के तत्वाधान में प्रतिवर्ष 10 अक्टूबर का दिन विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस बतौर मनाया जाता है। पिछले और चालू वर्ष में डब्ल्यूूएचओ की मंत्रणाएं और कार्यनीतियां कोविड के गिर्द सिमट गईं हालांकि मानसिक रोगों की भयावहता कोविड काल से पूर्व कमतर न थी। आवश्यकता मनोरोगों को समकालीन सामाजिक परिवेश में समझने और सोच को सही दिशा में प्रवृत्त करने की है।

जितना दुख मनुष्य को उसका मस्तिष्क देता है उतना कोई अन्य नहीं दे सकता। स्वयं के मन को कुशल, दुरस्त रखना आज बहुत बड़ी चुनौती है। बुद्व ने कहा, प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का निर्माता स्वयं है। आवश्यक है स्वयं को प्रभु की अस्मिता से जुड़ा महसूस करें, मन को अभीष्ट दिशा देने की क्षमता को पहचानें। तब हम स्वस्थ, सकारात्मक मुद्रा में रह सकेंगे।

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