शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

उम्रदारी के बावजूद बूढ़ा होना, न होना आपके हाथ है

 विशेष संदर्भः विश्व वृद्वजन दिवसः 1 दिसंबर शुक्रवार

उम्रदारी के बावजूद बूढ़ा होना, न होना आपके हाथ है



हरीश बड़थ्वाल

नई दिल्ली। पृथ्वी पर वनस्पतियों सहित सभी प्राणियों का जीवनकाल नियत है। स्थूल तौर पर जन्म, वृद्वि, परिपक्वता, क्षरण यानी क्रमगत गिरावट की अवस्थाओं से गुजरते हुए एक दिन उसका अंत हो जाता है। तथापि मनुष्य में निहित अथाह सामर्थ्यशील सूक्ष्मतत्व के कारण उसकी नियति अन्य सभी जीवों से भिन्न है। यह सूक्ष्मतत्व इतना सशक्त, अद्भुद् और अबूझ है कि इसे ‘दिव्य’ मानना अनुचित न होगा। प्रचंड क्षमतायुक्त एक स्वतंत्र मस्तिष्क, विचार, संवेदनाएं और भावनाएं इसी सूक्ष्मतत्व के रूप हैं। जिस सीमा तक मनुष्य इन दिव्य क्षमताओं से तादात्म्य बनाए रखता है, उसी सीमा तक वह अपने भौतिक अस्तित्व को जीवंत रखने या बूढ़ा न होने में समर्थ होगा। जिस शक्ति से संबद्व हो गए तो उससे संबल स्वतः मिलता है।


                                                                        हरीश बड़थ्वाल

उम्र तो सरकती रहेगी, हां बुढ़ापे पर नकेल कसी जा सकती है। बुढ़ापे का संबंध उम्र से कम, हौसलापरस्ती और जीवंतता से अधिक है। बेशक ‘वरिष्ठजन’ और ‘वृद्व’ समानार्थी हैं किंतु दोनों पर्याय नहीं हैं। एक व्यक्ति आश्वस्त रहता है कि वह अमुक कार्य कर ही नहीं सकता, दूसरा आश्वस्त होता है कि वह फलां कार्य अवश्य कर लेगा। दोनों सही सोचते हैं और अपनी सोच के अनुरूप फल पाते हैं। साठ वर्ष का बूढ़ा और साठ वर्ष का युवा वाली उक्ति आपने देखी-सुनी होगी। पहला सेवानिवृत्ति के बाद परिजनों, मित्रों से मेलजोल कम करने लगा। उसे कभी बाएं हाथ में तकलीफ हो जाती तो कभी दाएं पांव में। अधिसंख्य उम्रदारों की भांति अपनी संतानों के सरोकारों तक सीमित उसकी दास्तान कुछ यों रहती है- भूले भटके पधारे मुलाकातियों को विदेश में रचपच गए बेटे-बेटियों के किस्सों का आलाप। उसने उच्च्तर वेतन वाली दूसरी कंपनी जाइन कर ली, नई बड़़ी परिसंपत्ति जोड़ ली, बच्चे नामी आवासीय स्कूल में भरती करा दिए गए, वगैरह। सुनने वाला न मिले तो गश्त करते कालोनी के चौकीदार को रोक कर, बल्कि उससे बतियाने से ज्यादा स्वयं को समझाने की नाहक चेष्टा की जाती है कि बेटा लायक है, परदेश में है, खुश है, तरक्की की राह पर है। ऐसे उम्रदारों की जिंदगी का मुख्य एजेंडा बिजली, पानी, टेलीपफोन के बिल यथासमय चुकाने, डाक्टरी जांचों और इलाज के लिए अस्पताल जाने-लौटने तक सिमट जाता है। संवाद के नाम पर आते जाते से मौसम के बाबत दो-चार शब्दों का आदान प्रदान, बस। ऐसी दशा उम्रदारों को एकाकीपन और डिप्रेशन की ओर ठेलती हैं। संप्रति देश के 60 वर्ष से ऊपर के 14 करोड़ व्यक्ति कमोबेश इसी दुर्गत में हैं।

इसके उलट, साठ वर्ष के युवा के लिए उम्रदारी का अर्थ यह नहीं कि घर-परिवार, समाज से दरकिनार हो कर गुुमसुुम, मायूस रहा जाए। उसे ज्ञान होता है कि इस आयु में संतान से लिपटे-चिपटे रहना दोनों पक्षों में से किसी के हित में नहीं हैं चूंकि युुवा पीढ़ी की अपनी प्राथमिकताएं हैं। समय की बदलती नब्ज को भांपते हुए वह नित नए घटनाक्रम और अभिनव वस्तुओं, तकनीकों, घटनाओं से बेरुख नहीं होगा, उनमें रुचि लेगा। पारिवारिक मामलों में वह अन्य सदस्यों के कार्य में हस्तक्षेप तो दूर, बिनमांगी सलाह भी नहीं देगा, वह जानता है इससे संबंधों में कटुता आ सकती है। जिजीविषा से अभिप्रेरित उम्रदराज को संशय नहीं रहता कि पेड़़ तले छोटे पौधे ठीक से नहीं पनपते।

वैचारिक विपन्नता से उत्पन्न बेचारगी से वे उम्रदार प्रायः जूझते हैं जिन्होंने अपनी औसत बुद्वि संतान को उचित संस्कार नहीं दिए बल्कि किसी भी जोड़तोड़़ से पद, प्रतिष्ठा, पैसा जुटाना सिखाया। फिर उनसे वे उम्मीदें बांधी जिन्हें पूरा होना ही न था। जीवन के शेष दिन सुख चैन से गुजारने के लिए संतान पर इतराने की अपेक्षा उन्हीं गतिविधियों में संलग्न रहा जाए जो आपके मन, चित्त और शरीर के लिए हितकर हो।

वास्तविक परिस्थिति से बढ़ कर वह सोच और नजरिया है जो व्यक्ति को खुशनुमां या दुखी रखता है। भोपाल के एक मित्र कवि बलराम गुमास्ता की रचना है, ‘सूचना’। इसमें अपनी मां की मृत्यु की चार दिन बाद मिली जानकारी पर, मृत्यु पर नहीं, फूट फूट कर रोने का उल्लेख करते हैं। विडंबना है कि जिस परिस्थिति में कोई स्वयं को लाचार समझते हुए आत्महत्या कर डालता है या ऐसा विचार करता है, उससे बदतर, विकटतर परिस्थिति में दूसरा व्यक्ति विचलित ही नहीं होता! खेल नजरिए का है। मनुष्य का जन्म, उसके विचार, उसका चिंतन और उसकी विवेकशीलता इहलोक की अस्मिताएं नहीं हैं, अतः इन तीनों के स्वरूप, उद्भव और कार्यप्रणाली के अनेक आयामों को भलीभांति समझने में विज्ञान गच्चा खाते रहे हैं। जब खलील जिब्रान ने कहा, विचार अंतरिक्ष का पक्षी है, पिंजड़े में वह फड़फड़़ा भर सकता है, पंख नहीं खोल सकता, उनका आशय उस परम शक्ति को जानने-समझने से था जिसके हम अभिन्न अंग हैं, तथा मायावी अस्मिताओं के बदले उसी में चित्त लगाएंगे तो उम्रदारी बोझ नहीं बनेगी।

सृष्टि का विधान है, आपकी भूमिका तभी तक रहेगी जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी रहेंगे। परिवारजनों, परिजनों के लिए कुछ करने की मन में रहेगी तो दूसरों को आपसे मिलते लाभ से अधिक अहम आपका संतुष्टि भाव है जो आपको रचनात्मक मुद्रा में रखेगा। जिस मशीन से काम लेना बंद कर देते हैं वह कालांतर में कबाड़़ में तब्दील हो जाती है। कर्मरत रहेंगे तो आपके शारीरिक अंग-प्रत्यंग तथा मस्तिष्क की कोषिकाएं सुन्न नहीं पड़ेंगी, और दुरस्त रहने के लिए आपके पास एजेंडा होगा। उत्साह चरम हो तो शरीर के अंग प्रत्यंग साथ देते हैं। वही उम्रदार तन-मन से शेष दिन संतुष्टि से बिताते हैं जो सर्वप्रथम अपने बूते दैनंदिन कार्य संतोषजनक रूप से निबटाने में सक्षम हों। यहां अभिप्राय घरेलू कार्य के लिए परनिर्भता घटाने से है। न भूलें, छिनताई और लूटमारी के गिरोह पहले अपने ‘शिकार’ का बहुुपक्षीय आकलन करते हैं- गांठ में कितना है, आने-जाने वालों का क्या पैटर्न है, आदि। घरेलू कामकाजी को साथ मिला कर मंशा को अंजाम देना उनके लिए सहज हो जाता है। दूसरा, किसी बड़े मिशन से न जुड़े हों या कोई शौक न हो तो सत्संग, इच्छा के अनुकूल साहित्य का अनुशीलन, किचिन गार्डिन, पक्षी पालन जैसी गतिविधि में मनोयोग से जुड़ जाएं। तीसरा- निजी सरोकार, करुणाएं, हर्षाेल्लास साझा करने के लिए अपनी टिकाऊ व्यवस्था नहीं है तो निर्मित की जाए।

घर-समाज के कार्यों में अपने विशिष्ट कौशल, अनुभव और सूझबूझ के योगदान से न केवल वे लोकहित में सहभागी बनेंगे बल्कि अपना जीवन सार्थक और खुशनुमां बनाएंगे।

- लेखक के ब्लाग www.bluntspeaker.com से साभार।


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