सोमवार, 4 अप्रैल 2022

जीवन का आधार है अमृत तुल्य जल

 जीवन का आधार है अमृत तुल्य जल

हरीश बड़थ्वाल


हरीश बड़थ्वाल

नई दिल्ली। प्राणदाई पोषण से कहीं परे, जल रहस्यमय, दैविक गुणों से परिपूर्ण अस्मिता है और सभी पंथों में श्रद्वेय। इसके अविवेकपूर्ण उपयोग से सर्वत्र हाहाकार की नौबत आने को है अतः हमें सचेत होना पड़ेगा। जल है तो जीवन है। यह समस्त प्राणि और वनस्पति जीवन का आधार है। पृथ्वी की सतह का करीब 71 प्रतिशत जल से आच्छादित है तथा समूचे वयस्क शरीर में 60 प्रतिशत अंश जल से ओतप्रोत है। जल को प्राण की संज्ञा दी गई है। उसका पानी सूख गया है, से आशय होता है कि अमुक व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में है और अविलंब उसे बचाने का प्रयास करना होगा।



जल की अथाह शोधक, पुण्यकारी शक्तियां- एक मान्यता है कि पंचतत्वों में अहम जल ही संपूर्ण सृष्टि का उद्गम है तथा सभी जैविक व अन्य अस्मिताओं को अंततः जलविलीन हो जाना है। जल की उपस्थिति में ही बीज प्रस्फुटित और विकसित होते हैं। समस्त भौतिक व रासायनिक अशुद्वियों को निराकृत करने में सक्षम जल एक पुनीत, शोधनकारी अस्मिता है। विभिन्न प्रकार के विषाक्त व अन्य अपशिष्टों को विघटित कर सदा स्वच्छ, निर्मल और शुद्व पाए जाने के कारण गंगाजल का विशेष स्थान है। अपवित्र वातावरण से घर लौटने पर पहले द्वार पर गंगाजल से छिड़काव की प्रथा है। जल के अद्भुद्, विस्मयकारी गुण के कारण सभी पंथों के विभिन्न अनुष्ठानों में जल का उपयोग अनिवार्य रूप से होता रहा है। हिंदू रस्मों में पूजा-अर्चनाओं से पूर्व आचमन से मन, चित्त और वातावरण को शुद्व करते हैं। ऐसा इससे देवी-देवताओं का आह्वान सुकर होना माना जाता है। अन्यथा भी हस्त प्रक्षालन या जल के स्नान से शरीर, मन और चित्त शुद्व होता है, व्यक्ति ग्राही मुद्रा में आता है तथा उसकी आराधना या स्तुति फलदाई होती है। स्नान के दौरान भितरी और बाह्य जल के मध्य स्थापित संवाद से हम प्रकृति की शक्ति से लाभान्वित होते हैं।

गुजर-बसर और लोकजीवन का संबल- आदि सभ्यताएं झरनों, झीलों, नदियों जैसे प्राकृतिक जल स्रोतों के निकट होने के कारण ही पल्लवित, विकसित हुईं। नदियों पर लोकगीत लिखे-गाए गए, इनके कलरव, सौंदर्य और छटाओं की प्रेरणा से कालजयी साहित्य, और कलाकृतियां रची गईं। जल की उपलब्धता से ही मनुष्यों, पशु-पक्षियों की गुजर-बसर तथा कृषि कार्य संपन्न हो सकते थे। अधिकांश कस्बे और शहर नदियों के किनारे स्थापित हुए।

नदियां आवासीय क्षेत्रों, जिलों और राज्यों के विभाजन का आधार भी बनीं। नदियां के कारण लोगों और माल का आवागमन सुगम हुआ। जल प्रवाह की तुलना जीवन से की जाती है। जिस प्रकार एक नदी में दूसरी बार उसी रूप में दोबारा नहीं नहाया जा सकता उसी प्रकार जीवन की प्रत्येक परिस्थिति अलहदा, अभिनव प्रकृति की होती है, उससे सफलतापूर्वक निबटने यानी पार लगने के लिए उन दक्षताओं का प्रयोग किया जाना आवश्यक होता है जो अभी तक सुषुप्त थीं। तात्पर्य यह है कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए हमें जीवनपर्यंत निरंतर नए, बेहतर और परिमार्जित कौशल विकसित करने होंगे।

ऊर्जा का अविरल स्रोत- सदैव गतिमय तरंगों की उपस्थिति के कारण जल ऊर्जायुक्त होता है। जल को केवल शारीरिक वृद्वि के लिए मुख्य घटक समझना इसकी अवमानना है। विशेष तथा दैनंदिन प्रयोग में आने वाले जल का साहचर्य बाह्य स्तर पर सौर्य प्रकाश और आंतरिक स्तर पर रक्त से माना जाता है, चूंकि एक दृष्टि से दोनों जल के उच्चतर, परिष्कृत रूप हैं, प्रवाहमान होने के कारण अथाह ऊर्जा से परिपूर्ण। अतः इसके स्पर्श, सेवन या अन्यथा उपयोग के समय दैविक अस्मिता से जुड़ाव महसूस करें। सद्गुरु की राय है कि जल ग्रहण करते समय महसूस करें कि प्राकृतिक, ईश्वरीय तत्व आपके समूचे शरीर में शक्ति का संचार कर रही है।

जल संरक्षण के दायित्व को समझना होगा- इसे आप एक सर्वव्यापी शक्ति के प्रतिरूप बतौर स्वीकार करें। जल के प्रति समादर भाव अपना कर आप इसके गुणों व प्रभाव से लाभान्वित होंगे तथा परमशक्ति के सूक्ष्मांश के सत्य को अनुभूत करेंगे। तभी आप इस बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का उपयोग सुविचार से करने में समर्थ होंगे। जल की विस्मयकारी विशेषताओं के कारण भारतीय तथा अन्य समुदायों में नदियों की आराधना की जाती है और नदियों में स्नान पुण्यकारी माना जाता है।

आज आक्सीजन की कमी से पृथ्वी की संततियों की सांसें फूल रही हैं। कल कहीं पानी के अभाव से देश दम न तोड़ दे। जन को संरक्षित करना और इसका विवेकपूर्ण उपयोग अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा भावी पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगीं। दैनंदिन चर्या में आदतों में सुधार से जल की काफी मात्रा को बचाया जा सकता है जैसे आगंतुकों को पूरा गिलासभर जल प्रस्तुत करने के बदले आवश्यकता जान कर उतना ही दें, पानी के नल खुला न छोड़ें, जहां कम मात्रा से काम चल जाए, अधिक न खर्चें। स्नानगार, रसोईघर में जल का उपयोग सुविचार से किया जाए। जल शोधन संयंत्रों पर दबाव न पड़े, इस आशय से, बगीचे में पेयजल के बदले भूमिगत जल का प्रयोग हो। शहरी आवासों में पेयजल के लिए प्रयुक्त आरओ मशीनों के उपयोग में वास्तव में सेवन किए गए जल से कई गुना मात्रा नष्ट हो जाती है। इस जल का प्रयोग घर की धुलाई-सफाई के लिए या अन्यत्र किया जाए।

जल अत्यंत मूल्यवान, सार्वजनिक संपदा है जिसकी एक भी बूंद नाहक खर्च न हो। इसका उपयोग अत्यंत सूझबूझ से मिलबांट कर करना होगां। इसी में संपूर्ण मानवजाति का हित है।

(लेखक  हरीश बड़थ्वाल की अन्य रचनाएं उनके ब्लाग- www.bluntspeaker.com में उपलब्ध हैं।)


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