मंगलवार, 21 जुलाई 2020

कोरोना वायरस के बारे में अब तक की जानकारी

कोविड-19 के प्रति हो रही लापरवाही


कोरोना वायरस के बारे में अब तक की जानकारी



प0नि0डेस्क
देहरादून। कोरोना महामारी की शुरुआत को छह महीने से ज्यादा का समय हो चला है। तब से दुनिया भर के वैज्ञानिक इस नए वायरस को समझने में लगे हुए हैं। तो अब तक हम कोविड-19 को कितना जानते है? यह सवाल सामने है। 
सोशल मीडिया पर वायरस के पफैलाव को ले कर कई किस्से कहानी है। चीन के वुहान स्थित एक मीट बाजार से शुरूवात की बात होती है तो कोई इसे चीन का बायालोजी वैपन भी करार देते है। लेकिन रहस्य आज भी कायम है।
चीनी वैज्ञानिकों ने रिकार्ड समय में इस नए कोरोना वायरस के जेनेटिक ढांचे का पता लगा लिया था। 21 जनवरी को उन्होंने इसे प्रकाशित किया और तीन दिन बाद विस्तृत जानकारी भी दी। जिसके आधार पर दुनिया भर में वायरस के खिलापफ वैक्सीन बनाने की मुहिम शुरू हो गई। 
गौर हो कि सार्स कोव-2 वायरस की सतह पर एस-2 नाम के प्रोटीन होते हैं। यही इंसानी कोशिकाओं से जुड़ जाते हैं और संक्रमित व्यक्ति को बीमार करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। वैक्सीन का काम इस प्रोटीन को निष्क्रिय करना या किसी तरह ब्लाक करना होगा।
शुरुआत में कहा गया कि संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से या पिफर संक्रमित सतह को छूने से ही यह वायरस फैलता है लेकिन अब पता चला है कि फ्रलू के वायरस की तरह यह भी हवा से पफैल सकता है।
किसी बंद जगह में बड़ी तादाद में लोगों की मौजूदगी इसमें खतरे की घंटी है। इसीलिए दुनिया के करीब हर देश ने लाकडाउन का सहारा लिया। इसलिए ज्यादातर देशों में सिनेमा हाल, ट्रेड पफेयर और बड़े आयोजन बंद हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन शुरू में संक्रमण पर काबू पाने के लिए मास्क के इस्तेमाल से इनकार करता रहा। लेकिन देशों ने उसके खिलापफ जा कर सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनना अनिवार्य किया। 
दो अहम बातें इससे बचाव के लिए वास्तव में महत्वपूर्ण है- साबुन से अच्छी तरह हाथ धोना और सोशल डिस्टेंसिंग। हालांकि लाकडाउन खुलने के बाद से सोशल डिस्टेंसिंग को ले कर लोग लापरवाह होते जा रहें है।
अब तक हुए शोध दिखाते हैं कि इंसानों को पालतू जानवरों से कोई खतरा नहीं है। हालांकि इस दिशा में अभी और शोध चल रहे हैं। वहीं महिलाओं की तुलना में पुरुषों को कोविड-19 का खतरा ज्यादा है। इसी तरह ए ब्लड ग्रुप के लोगों पर इसका ज्यादा असर होता है। पहले से बीमार लोगों का शरीर वायरस का ठीक से सामना नहीं कर पाता। मधुमेह, कैंसर और हृदय रोगियों को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
अब तक हुए सभी शोध इशारा करते हैं कि अगर इम्यून सिस्टम मजबूत है तो वायरस के असर से बच सकते हैं। संक्रमण के बाद फिट हो जाने वाले व्यक्ति के खून में वायरस से लड़ने वाली एंटीबाडी बनी रहती हैं। कुछ देशों में डाक्टर इन एंटीबाडी का इस्तेमाल मरीजों को ठीक करने के लिए कर रहे हैं।
यूरोप में जब यह वायरस पफैला तो डाक्टर जल्द से जल्द मरीजों पर वेंटिलेटर इस्तेमाल करने लगे। अब बताया जा रहा है कि वेंटिलेटर का इस्तेमाल पफायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। ऐसे में अब आईसीयू केवल आक्सीजन लगाने पर जोर दे रहे हैं।
पहले सिपर्फ पफेपफड़ों पर ध्यान दिया जा रहा था, वहां अब मरीज के आईसीयू से निकलने के बाद बाकी के अंगों की भी जांच की जा रही है क्योंकि कई मामलों में इस वायरस को अंगों के नाकाम होने के लिए जिम्मेदार पाया गया है।
यदि किडनी पर असर हुआ हो तो डायलिसिस की जरूरत होती है। आम तौर पर इसके लिए बड़ा खर्च आता है। अब तक इस वायरस से निपटने का कोई रामबाण इलाज नहीं मिला है। डाक्टर कुछ दवाओं का इस्तेमाल जरूर कर रहे हैं लेकिन ये सभी दवाएं लक्षणों पर असर करती हैं, बीमारी पर नहीं। रेमदेसिविर इस मामले में चर्चित दवा है।
एक अनुमान है कि इस साल के अंत तक टीका बाजार में आ जाएगा, तो कुछ अगले साल की शुरुआत की बात कर रहे हैं। लेकिन टीके आमतौर पर इतनी जल्दी तैयार नहीं होते और अगर बन भी जाए तो पूरी आबादी तक उन्हें पहुंचाने में भी वक्त लग जाएगा।
पिफलहाल अलग-अलग देशों में 160 वैक्सीन प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। टीबी की वैक्सीन को बेहतर बना कर इस्तेमाल लायक बनाने की कोशिश भी चल रही है। भारत के सीरम इंस्टीइट्यूट ने प्रोडक्शन की तैयारी कर ली है। बस सही पफार्मूला मिलने का इंतजार बाकी है। 
जून के अंत तक पांच टीकों का ह्यूमन ट्रायल हो चुका है। इंसानों पर टेस्ट का मकसद होता है यह पता करना कि इस तरह के टीके का इंसानों पर कोई बुरा असर तो नहीं होगा। हालांकि यह असर दिखने में भी लंबा समय लग सकता है।


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