कुमाऊं की गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहरों में होली का विशिष्ट स्थान
कुमाऊंनी होली में गायन की दो शैलियां प्रचलित
दीपक नौगांई ‘अकेला’
रानीबाग। होली मूलतः ब्रज शैली का गायन है परन्तु भारतवर्ष मे यह समान रूप से लोकप्रिय है। कुमाऊं की गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहरों में होली का विशिष्ट स्थान है। पौष मास के पहले रविवार से होली गायन शुरू हो जाता है जो अनवरत रुप से टीके के दिन तक चलता है। सभी जगह एकादशी के दिन रंग पड़ता है और शुक्ल अष्टमी का दिन चीर स्थापना अष्टमी कहलाता है जब पदम नामक पेड़ की टहनियों को किसी मंदिर के प्रांगण अथवा मैदान में जमा कर उस पर लाल व सपफेद रंग के कपड़ों की कतरनें बांध दी जाती है। इसे चीर वृक्ष कहते हैं।
कुमाऊंनी होली में गायन की दो शैलियां प्रचलित है- खडी होली और बैठक होली। खड़ी होली प्रायः दिन में गाई जाती है, जिसमें वृताकार घेरे में घूमते हुए नृत्य योजना, पदक्रम व हस्त संचालन का सभी होल्यार को पालन करना पड़ता है। बैठकी होली में स्वर क्रम के आरोह अवरोह पर गायन निर्भर रहता है। कुमाऊं की होली में गणेश पूजन से लेकर चंद व गोरखा शासनकाल, नेपाल पशुपतिनाथ की अराधना, ब्रज के राधा-कृष्ण गोपियों की हंसी ठिठोली से लेकर, स्वतंत्रता संग्राम व उतराखण्ड आंदोलन की झलक भी देखने को मिलती है।
यहां भिन्न भिन्न परिस्थितियों, भाव और मनोदशा को सजीव रुप देने के लिए अनेक होली गीतों की रचना हुई है जिनमें हास परिहास, श्रृंगार, व्यंग्य, फटकार, विरह, उलाहना, आमंत्रण, छेड़छाड़ आदि के भाव समाहित है। होली गायकी बहुत कुछ इलाहाबाद की ठुमरी से मेल खाती है। आरंभ में गीत मंद गति से चलता है और बाद में द्रुत, त्रिताल अथवा कहरुआ से होता हुआ पुनः पहली चाल पर दीपचंदी मे उतर आता है।
कुमाऊं में होली की शुरुआत चंद शासनकाल से मानी जाती हैं। विद्वानों के अनुसार चंद शासनकाल में बाहर से विवाह कर लायी गयी रानियां अपनी परंपराओं के साथ होली को भी लेकर आयी। तब चंपावत में चंद राजाओं के महल में और आसपास स्थित काली कुमाऊं, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में होली की शुरुआत हुई। राजा कल्याण चंद स्वयं होली संगीत व गायन के उपासक थे।
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