बुधवार, 3 मार्च 2021

मेले व त्यौहारः गल्ली थौळू पर विशेष

 मेले व त्यौहारः गल्ली थौळू पर विशेष



                                                                       शूरवीर रावत


देहरादून। मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता गया उसके अन्दर असुरक्षा की भावना बढ़ी, असुरक्षा से हवस और संग्रहण की प्रवृत्ति पुष्ट हुयी और उसने धीरे-धीरे अपने चारों ओर एक ऐसा दायरा बना दिया जिसमें हर कोई अधिकाधिक संग्रह करने की ओर उन्मुख होता है। जो उनके जैसे नहीं हो सके वे ऐसे समाज से बाहर हो गये और इस तथाकथित सभ्य समाज ने उसे नाम दिया आदिवासी समाज। सच भी है आदिवासी समाज आज भी सभ्य समाज की चालाकियां कदाचित ही समझ पाया है। आदिवासी लोग प्रकृति की गोद में उन्मुक्त व उल्लास से भरा जीवन जीते आये हैं। परन्तु धीरे-धीरे अधिकांश आदिवासी समाजों में भी जातिगत अवधारणा विकसित हुयी और वे मुख्य समाज में जुड़ने लगा। आज उत्तराखण्डी समाज भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। मुख्य समाज में समाहित होने के प्रयास भले ही हों किन्तु प्रायः वर्तमान में जीने वाले ऐसे समाज में उत्सवधर्मिता कम नहीं हुयी है। उतरायणी मेला, स्याल्दे बिखोती, पूर्णागिरी मेला, कण्डाळी मेला, नन्दा राजजात, कण्वाश्रम मेला, ज्वाल्पा मेला, काण्डा मेला आदि असंख्य मेले उत्तराखण्डी संस्कृति की अभिन्न पहचान है।



टिहरी गढ़वाल में भी कुछ ऐसे मेले हैं जो प्रतिवर्ष आयोजित किये जाते हैं। धार्मिक श्रेणी के इन मेलों में जन-जन की आस्था है और इनके लिए जनसमुदाय पूरे वर्ष भर प्रतीक्षा करता है यथा सुरकण्डा का गंगा दशहरा मेला, कुंजापुरी तथा चन्द्रबदनी के नवरात्र मेले, बूढ़ाकेदार का कैलापीर मेला, सेम-मुखेम मेला, सिद्वपीठ ओणेश्वर कोटेश्वर महादेव मेला, ज्वाला देवी-विनयखाल मेला, माणेकनाथ मेला, मकर संक्रान्ति व बसन्त पंचमी मेला, अलेरू-रथी देवता का मेला प्रमुख है।



मेला को गढ़वाली भाषा में थौळू या कौथिग भी कहा जाता है और मेले में प्रतिभाग करने वाले को थौळेर या कौथिगेर। ‘कौथिगेरू न थौळू भरीगे, स्याळी सुरमा...’   



इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे मेले भी हैं जो स्थान विशेष पर आयोजित होने के कारण जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि इनका स्वरूप भी कहीं-कहीं धार्मिक है। यथा छाम-कण्डीसौड़, नगुण, देवीसौड़, कमान्द, नैखरी (चन्द्रबदनी), चम्बा, पथल्डा (हिण्डोलाखाल), चम्बा (वीर गबर सिंह का मेला), रौड़धार, खण्डोगी, अंजनीसैण, डिबनू, बादशाही थौल, बग्वान, महड़, जामणीखाल, पौड़ीखाल आदि अनेक मेले। 



टिहरी गढ़वाल की चौवन पट्टियों में इक्कीस गांवों की एक पट्टी है धारमण्डल। प्रतापनगर तहसील के अन्तर्गत इस पट्टी में भी प्रतिवर्ष तीन मेले आयोजित होते हैं। मदननेगी (बीस गते बैसाख- जिसमें स्थानीय देवता मदननेगी की पूजा अर्चना की जाती है), गल्ली (पांच गते जेठ- जिसमें स्थानीय देवता गल्ली अर्थात गलेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की जाती है) और दयारा (छः गते जेठ- जिसमें स्थानीय देवता नागर्जा की पूजा की जाती है, हालांकि कुछ लोग दयारा में सिलंग्वा देवता के पूजे जाने की बात करते है)। दयारा नाम की जगह टिहरी बांध में डूब जाने के कारण अब दयारा का मेला उनके पुनर्वास स्थल भानियावाला में आयोजित किया जाता है।

चालीस-बयालीस साल पहले गल्ली थौळू में एक-दो बार ही मेरा जाना हुआ परन्तु आज भी जब उसकी याद आती है तो आदिम युग के दृश्य आंखों के आगे तैरने लगते हैं। जब टेमरू और अन्य लकड़ी के डण्डों से खूंखार मर्द प्रतिशोध की भावना से एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे और परिणाम औरतों व बच्चों का सहम जाना और पिफर घायल को चारपाई पर डालकर अस्पताल के लिए रवाना करना। थौळू मेलों के पीछे की अवधारणा थी परस्पर मिलन और आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी। परन्तु गल्ली के थौळू में नजारा बिल्कुल इसके उलट होता था। जब दो गुट आपस में टूट पड़ते थे तो मेलास्थल की हालत ऐसी हो जाती थी जैसे दो साण्डों की लड़ाई में खड़ी फसल वाला खेत।

तब रजाखेत क्षेत्र में सड़क नहीं थी। हम भी जब गांव से निकले तो नारगढ़, भौन्याड़ा, पाचरी, भाषली होते हुये गल्ली पहुंचे। पूर्व विधायक बिक्रम सिंह नेगी द्वारा ब्लाक प्रमुख काल में क्षेत्रा के प्रधानों के सहयोग से आज गल्ली में भव्य मन्दिर बनवाया गया है किन्तु तब केवल वहां पर एक मण्डला (मिट्टी-पत्थरों से तैयार एक प्रतीकात्मक मन्दिर) ही था। मन्दिर के पुजारी भौन्याड़ा-पाचरी के ब्राह्मण होते थे और मेले में कफलोग, नेल्डा, म्यूंडा, सिलोळी, तुन्यार, कोटचौरी-भाषली, कोळगौं-भटवाड़ा, खाण्ड आदि गांवों के ढोल सम्मिलित होते थे। हालांकि दबदबा तब तुन्यार और सिलोळी वालों का ही रहता था। इतने जोड़ी ढोलों की नाद से पूरी घाटी गुंजायमान होती थी। रोमांच भर जाता था। पांव थिरकने लगते थे। स्वर लहरियंा गूंजने लग जाती थी। तब एकाएक कहीं से उन्मादित मर्द विघ्न डालते थे। सपना टूट जाने का सा अहसास होता था। 

न जाने क्यों गल्ली का थौळू खून-खराबे के लिए अभिशप्त था। तब शायद ही कभी सौहार्दपूर्ण ढंग से मेला निपटा हो। ऐसा भी नहीं कि झगड़ा अचानक जुट जाता हो। यह सब पूर्व नियोजित होता था। लड़ाई-झगड़े करने वाले इस तैयारी से जाते थे कि आज हमने उस गांव वालों को सबक सिखाना है। यह अलग बात है कि कभी-कभी वे खुद ही पिट जाते थे। बल्कि छः महीने, साल भर पहले ही धमकी दी जाती थी कि ‘मिलना बेटे गल्ली के थौळू में’। यह सौभाग्य की बात है कि आज की पीढ़ी शिक्षित व समझदार हैं और इस प्रकार का झगड़ा अब शायद ही होता होगा।

गलेश्वर महादेव से प्रार्थना है कि इस साल का मेला कोरोना की भेंट अवश्य चढ़ गया है परन्तु जब भी मेला हो सुखमय हो, उल्लासपूर्ण हो और पारस्परिक सद्भाव बना रहे।


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